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________________ *懟懟懟懟懟業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित अर्थ सूत्र का अर्थ है सो जिन सर्वज्ञदेव ने कहा है । तथा सूत्र में जो अर्थ है सो जीव-अजीव आदि बहुत प्रकार का है तथा 'हेय' अर्थात् त्यागने योग्य पुद्गलादि और ‘अहेय' अर्थात् त्यागने योग्य नहीं ऐसा आत्मा - ऐसा है सो जो इसको जानता है वह प्रकट सम्यग्द ष्टि है । भावार्थ सर्वज्ञभाषित सूत्र में जीवादि नौ पदार्थ और उनमें हेय व उपादेय - ऐसे बहुत प्रकार से व्याख्यान है, उसको जो जानता है वह श्रद्धावान होकर सम्यग्द ष्टि होता है । । ५ । । उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'जो जिनभाषित सूत्र है सो व्यवहार - परमार्थ रूप से दो प्रकार का है, उसको जानकर योगीश्वर शुद्ध भाव करके सुख को पाते हैं' 卐業卐卐業業 - जं सुत्तं जिणउत्तं ववहारो तह य जाण परमत्थो । तं जाणिऊण जोई लहइ सुहं खवइ मलपुंजं । । ६ । । जिन उक्त है जो सूत्र वह, व्यवहार - निश्चय रूप है। उसे जान योगी पावें सुख, क्षय करें मल के पुज का । । ६ । । अर्थ जो जिनभाषित सूत्र है वह व्यवहार रूप है तथा परमार्थ रूप है, उस व्यवहार–परमार्थ को जानकर योगीश्वर सुख पाते हैं और 'मलपुंज' अर्थात् द्रव्यकर्म, भावकर्म तथा नोकर्मका क्षपण करते हैं । भावार्थ जिनसूत्र को व्यवहार - परमार्थ रूप यथार्थ जानकर जो योगीश्वर मुनि हैं वे कर्मों का नाश कर अविनाशी सुख रूप मोक्ष को पाते हैं । यहाँ 'परमार्थ' अर्थात् निश्चय और व्यवहार इनका संक्षेप स्वरूप इस प्रकार है-जिन आगम की व्याख्या चार अनुयोग रूप शास्त्रों में दो प्रकार से प्रसिद्ध है-एक आगम रूप २-१६ 【卐糕糕卐業 灬業業業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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