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ने श्रद्धान करने वाले के सम्यक्त्व कहा है।।१४ ।। गा० २६-'अस्संजदं ण वंदे.... अर्थ-असंयमी को नमस्कार नहीं करना चाहिए, भाव संयम से रहित बाह्य नग्न रूप को धारण करने वाला भी वंदने योग्य नहीं है क्योंकि ये दोनों ही संयम रहित होने से समान हैं, इनमें एक भी संयमी नहीं है।।१५।। र गा० २७–'णवि देहो वंदिज्जइ....' अर्थ-न तो देह की वंदना की जाती है, न कुल
की और न ही जातिसंयुक्त की। गुणहीन की कौन वंदना करे ! गुण बिना न तो मुनि, न ही श्रावक ।।१६।। गा० ३१–'णाणं णरस्स सारं... अर्थ-प्रथम तो मनुष्य के लिए ज्ञान सार है और ज्ञान से भी अधिक सम्यक्त्व सार है। सम्यक्त्व से चारित्र होता है और चारित्र
से निर्वाण होता है।।१७।। ands गा० ३३-'कल्लाणपरंपरया... अर्थ-जीव विशुद्ध सम्यक्त्व को कल्याण की परम्परा के साथ पाते हैं। सम्यग्दर्शन रत्न इस सुर एवं असुरों से भरे हुए लोक
में पूज्य है। 198 ।।
Mana गा० ३४-'दळूण य मणुयत्तं....' अर्थ-उत्तम गोत्र सहित मनुष्य पर्याय पाकर और वहाँ सम्यक्त्व को प्राप्त कर यह जीव
अविनाशी सुख और मोक्ष को पाता है।।१७।।
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