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________________ गा० ७—–—सम्मत्तसलिलपवहो...' अर्थ-जिस पुरुष के हृदय में सम्यक्त्व रूपी जल • का प्रवाह निरन्तर वर्तता है उसके कर्म रूप बालू रज का आवरण नहीं लगता और पूर्व में लगा हुआ कर्मबंध भी नाश को प्राप्त हो जाता है । । ५ । । गा० १० –- 'जह मूलम्मि विण....' अर्थ-जैसे वक्ष का मूल नष्ट होने पर उसके स्कंध, शाखा, पत्र आदि परिवार की व द्धि नहीं होती वैसे ही जो जिनदर्शन से भ्रष्ट हैं वे मूलविनष्ट हैं, उनके सिद्धि नहीं होती । । ६ । । गा० ११ – 'जह मूलाओ खंधो...' अर्थ-जैसे वक्ष के मूल से शाखा आदि बहुत गुण वाला स्कंध होता है वैसे ही गणधरदेवादि ने जिनदर्शन को मोक्षमार्ग का मूल कहा है । ।७ । । गा० १२–’जे दंसणेसु भट्ठा...' अर्थ - जो पुरुष दर्शन से भ्रष्ट हैं और अन्य दर्शन के "धारकों को अपने पैरों में पड़वाते हैं वे परभव में लूले, गूंगे होते हैं और उनके बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान - चारित्र की प्राप्ति दुर्लभ होती है ।। 8 ।। गा० १५, १६ – 'सम्मत्तादो णाणं...., 'सेयासेयविदण्हू...' अर्थ - सम्यक्त्व से तो ज्ञान सम्यक् होता है और सम्यक् ज्ञान से सर्व पदार्थों की प्राप्ति तथा जानना होता है तथा पदार्थों की उपलब्धि होने पर कल्याण और अकल्याण को जाना जाता है । कल्याण और अकल्याण मार्ग को जानने वाला पुरुष 'जिसने मिथ्या स्वभाव को उड़ा दिया है' ऐसा होता है और सम्यक् स्वभाव सहित भी होता है तथा उस सम्यक् स्वभाव से तीर्थंकर आदि पद पाकर पीछे निर्वाण को प्राप्त होता है ।।9।। गा० १७–'जिणवयण ओसहमिणं... अर्थ - यह जिनवचन रूपी औषधि इन्द्रिय विषयों सुख की मान्यता का विरेचन करने वाली, अम त समान, जरा-मरण रूप रोग को हरने वाली तथा सर्व दुःखों का क्षय करने वाली है । । १० ।। गा० १४–‘एगं जिणस्स रूवं...' अर्थ-दर्शन में एक तो जिन का रूप-जैसा लिंग "जिनदेव ने धारण किया वह है, दूसरा उत्क ष्ट श्रावकों का है, तीसरा जघन्य पद में स्थित आर्यिकाओं का है तथा चौथा लिंग दर्शन में नहीं है ।।११।। गा० २०–'जीवादी सद्दहणं....' अर्थ - जिनवरों ने जीवादि पदार्थों के श्रद्धान को * व्यवहार से सम्यक्त्व कहा है और निश्चय से अपनी आत्मा ही का श्रद्धान सम्यक्त्व है । । १२ । । गा० २१–—एवं जिणपण्णत्तं ....' अर्थ - ऐसे गुणों में और दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीन "रत्नों में सार तथा मोक्ष मन्दिर में चढ़ने के लिये पहली सीढ़ी इस जिनकथित दर्शन रत्न को तुम अन्तरंग भाव से धारण करो ।। १३ ।। गा० २२–'जं सक्कइ तं कीरइ....' अर्थ - जितना चारित्र धारण करना शक्य हो वह - तो करे और जितने की सामर्थ्य न हो उसका श्रद्धान करे क्योंकि केवली भगवान १-५४
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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