________________
*
गाथा
चयन
000
गाथा २ - 'दसंणमूलो धम्मो ... अर्थ - जिनवर सर्वज्ञदेव ने गणधर आदि शिष्यों को ''दर्शन जिसका मूल है' ऐसे धर्म का उपदेश दिया है उसको अपने कानों से सुनकर दर्शनहीन की वंदना मत करो । । १ । ।
गा० ३ - 'दंसणभट्टा भट्टा...' अर्थ-दर्शन से भ्रष्ट ही भ्रष्ट हैं उनके निर्वाण नहीं होता। चारित्र से भ्रष्ट तो सिद्धि को प्राप्त होते हैं पर दर्शनभ्रष्ट नहीं । । २ । । गा० ४–सम्मत्तरयणभट्ठा ... अर्थ- जो सम्यक्त्व रूपी रत्न से भ्रष्ट हैं वे बहुत प्रकार के शास्त्रों को जानते हुए भी आराधनाओं से रहित होने के कारण उसी संसार में भ्रमण करते रहते हैं । । ३ ।।
गा० ५–'सम्मत्तविरहिया णं... अर्थ - जो सम्यक्त्व से रहित हैं वे हजार करोड़ वर्ष तक भली प्रकार उग्र तप का आचरण करें फिर भी 'बोधि' अर्थात् अपने स्वरूप के लाभ को नहीं पाते । । ४ । ।
१-५३