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विषयवस्तु
छत्तीस गाथाओं में निबद्ध इस पाहुड़ में कुन्दकुन्द स्वामी ने निश्चय से अपनी आत्मा का श्रद्धान और व्यवहार से जीवादि पदार्थों के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहते हुए दर्शन को धर्म का मूल कहा है। सम्यग्दर्शन की उन्होंने अनेक प्रकार से ऐसे महिमा कही है कि दर्शन से भ्रष्ट ही मूलविनष्ट है, वह सीझता नहीं; चारित्र से भ्रष्ट तो सीझ जाए पर दर्शन से भ्रष्ट नहीं सम्यक्त्व रत्न से भ्रष्ट बहुत प्रकार के शास्त्रों को भी जानता हो और उग्र-उग्र तप भी करता हो पर वह कर्म क्षय नहीं कर पाता जबकि सम्यक्त्व रूप जल प्रवाह जिसके हृदय में बहता है उसके कर्म रज का आवरण नहीं लगता और पूर्व में लगा कर्मबंध भी नष्ट हो जाता है। सम्यक्त्व बिना ज्ञान और चारित्र मिथ्या ही रहते हैं और सम्यक्त्व से यह जीव श्रेय और अश्रेय का ज्ञाता होकर निर्वाण पा जाता है सो सम्यक्त्व रत्न ही सुर-असुरों से भरे हुए इस लोक में पूज्य है। सम्यक्त्व का खूब माहात्म्य वर्णन करके सारे गुणों में और दर्शन-ज्ञान- चारित्र इन तीनों रत्नों में सार एवं मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी सम्यक्त्व को अन्तरंग भाव से धारण करने की पावन प्रेरणा आचार्य महाराज ने इस पाहुड़ में दी है।
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