________________
१. दंसणमूलो धम्मो।।गाथा २|| अर्थ-दर्शन ही धर्म का मूल है। २. दसणहीणो ण वंदिव्वो।। २।। अर्थ-दर्शनहीन की वंदना नहीं करनी चाहिए। ३. दंसणभट्ठा भट्ठा दसणभट्ठाण णत्थि णिव्वाणं।। ३।।
अर्थ-दर्शन से भ्रष्ट ही भ्रष्ट है, दर्शन से भ्रष्ट का निर्वाण नहीं होता। ४. जिणदंसणभट्ठा मूलविणट्ठा ण सिज्झंति।। १०|| अर्थ-जिनदर्शन से भ्रष्ट मूल से
विनष्ट हैं, वे सीझते नहीं अर्थात् उनके मोक्ष की सिद्धि नहीं होती। जिणदंसणमूलो णिद्दिवो मोक्खमग्गस्स।। ११।।
अर्थ-गणधरदेवादि ने जिनदर्शन को ही मोक्षमार्ग का मूल कहा है। ६. जिणवयण ओसहमिणं विसयसहविरेयणं अमिदभयं।। १७।।
अर्थ-जिनवचन विषयों में सुख की मान्यता का विरेचन करने वाली अम तभूत
औषधि है। ७. एवं जिणपण्णत्तं दसंणरयणं धरेह भावेण।। २१।।।
अर्थ-ऐसे जिनवरकथित दर्शन रत्न को तुम भावपूर्वक धारण करो। 8. दंसणं सोवाणं पढम मोक्खस्स।।२१।। अर्थ-दर्शन मोक्ष की पहली सीढ़ी है। 9. जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं।। २२।। अर्थ-जितना चारित्र
धारण करना शक्य हो उतना तो करना और जितने की सामर्थ्य नहीं हो उसका श्रद्धान
करना। १०. सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं।। ३१।। अर्थ-पुरुष के लिए सम्यक्त्व निश्चय से सार है।
.सूक्ति
प्रकाश
१-५६