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________________ अष्ट पाहुड़ati. स्वामी विरचित o आचार्य कुन्दकुन्द Doc ADOOG • Del Dool SARAMMADI Des/ Clot MAMAYA W.V.W WAS SOCH भावार्थ जो ऐसे मुनि के गुण लोक में विस्तार को प्राप्त होते हैं और सर्व लोक के द्वारा प्रशंसा योग्य होते हैं सो यहाँ भी शील ही की महिमा जानना और वक्ष का यहाँ रूपक है। जैसे जिस वक्ष के शाखा, पत्र, पुष्प एवं फल सुन्दर हों और जो छायादि के द्वारा राग-द्वेष रहित लोक का सबका समान उपकार करता हो उस वक्ष की महिमा सब लोग करते हैं वैसे ही मुनि भी यदि ऐसा हो तो वह सबके द्वारा महिमा करने योग्य होता है।।३६ ।। 樂樂男男飛崇崇禁禁禁禁禁禁禁禁禁藥男男戀 आगे कहते हैं कि 'जो ऐसा हो वह जिनमार्ग में रत्नत्रय की प्राप्ति रूपी बोधि को पाता है :णाणं झाणं जोगो दंसणसुद्धी य वीरियाइत्तं । सम्मत्तदंसणेण य लहंति जिणसासणे बोहिं ।। ३७।। जो ज्ञान, ध्यान व योग, द ग्शुद्धि सो वीर्याधीन है। सम्यक्त्व दर्शन से ही, जिनशासन में बोधि प्राप्त हो।।३७ ।। अर्थ ज्ञान, ध्यान, योग और दर्शन की शुद्धता-ये तो वीर्य के आधीन हैं और सम्यग्दर्शन से जिनशासन में बोधि को पाता है अर्थात रत्नत्रय की प्राप्ति होती है। भावार्थ 'ज्ञान' अर्थात पदार्थों को विशेष रूप से जानना 'ध्यान' अर्थात स्वरूप में एकाग्रचित होना, 'योग' अर्थात् समाधि लगाना और सम्यग्दर्शन को निरतिचार शुद्ध करना-ये तो अपना वीर्य जो शक्ति उसके आधीन हैं, जितने बन जायें उतने हों और सम्यग्दर्शन से बोधि जो रत्नत्रय उसकी प्राप्ति होती है, इसके होने पर विशेष ज्ञान-ध्यानादि भी यथाशक्ति होते ही हैं और शक्ति भी इससे बढ़ती है। 崇崇崇崇崇崇崇崇明崇崇勇兼崇明藥業樂業事業勇崇勇 禁禁禁禁禁禁藥騰崇崇崇崇勇兼業助
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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