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अष्ट पाहुड़..
स्वामी विरचित
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o आचार्य कुन्दकुन्द
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णिद्दड्ढअट्ठकम्मा विसयविरत्ता जिदिदिया धीरा। तवविणयसीलसहिदा सिद्धा सिद्धि गदिं पत्ता।। ३५|| तप विनय शील से युत जितेन्द्रिय विषय विरत व धीर जो। वे जला आठों कर्म पाकर सिद्धिगति को सिद्ध हों ।।३५ ।।
अर्थ जो पुरुष जीता है इन्द्रियों को जिन्होंने इसी से विषयों से विरक्त हुए हैं; धीर हैं-परीषहादि उपसर्ग आने पर चलायमान नहीं होते हैं; तप, विनय एवं शील से सहित हैं और दग्ध किया है आठ कर्मों को जिन्होंने ऐसे होकर 'सिद्धगति' जो मोक्ष उसको प्राप्त हुए हैं वे 'सिद्ध' इस नाम से कहे जाते हैं।
भावार्थ यहाँ भी जितेन्द्रिय और विषयविरक्त-ये विशेषण शील ही की प्रधानता बताते हैं ||३५||
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आगे कहते हैं कि 'जो लावण्य और शीलयुक्त हैं वे मुनि सराहने योग्य होते हैं :
लावण्णसीलकुसला जम्ममहीरुहो जस्स सवणस्स। सो सीलो स महप्पा भमित्थ गुणवित्थरं भविए।। ३६ ।। लावण्यशीलकुशल जनम तरु, होता है जिस श्रमण का। उस शीलयुक्त महातमा के, लोक में गुण विस्तरे ।।३६ ।।
अर्थ जिस मुनि का जन्म रूपी जो वक्ष है वह (१) 'लावण्य' अर्थात् दूसरों को प्रिय लगें ऐसे सर्व अंगों में सुन्दर अर्थात् मन-वचन-काय की चेष्टा और (२) 'शील' अर्थात् अन्तरंग में मिथ्यात्व एवं विषयों से रहित परोपकारी स्वभाव-इन दोनों में प्रवीण-निपुण हो वह मुनि शीलवान है, महात्मा है और उसके गुणों का विस्तार
लोक में भ्रमता है, फैलता है। 明崇明崇勇崇明崇明藥業第
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