SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 626
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्ट पाहुड areate स्वामी विरचित DOG Deola • आचार्य कुन्दकुन्द DOG/R Dod PLO SAINMMAP Hoca TWMJANA W.V.W WAS Clot HDOOT IN ऐसा कहने में भी शील ही का माहात्म्य जानना। रत्नत्रय है सो ही आत्मा का स्वभाव है, उसको शील भी कहते हैं ।।३७।। MO आगे कहते हैं कि 'यह प्राप्ति जिनवचन से होती है' :जिणवयणगहिदसारा विसयविरत्ता तवोधणा धीरा। सीलसलिलेण प्रहादा ते सिद्धालयसुहं जंति।। ३४।। जिनवचनसार ग हीत, विषयविरत तपोधन धीर जे। वे शील जल से स्नान कर, सिद्धालय सुख को प्राप्त हों।।३8 ।। अर्थ %%崇崇崇榮樂樂業先業事業事業事業蒸蒸勇崇勇崇明崇明 १. जिनवचनों से ग्रहण किया है सार जिन्होंने, २. विषयों से जो विरक्त हुए हैं, ३. तप ही है धन जिनका एवं ४. जो धीर हैं-ऐसे मुनि शील रूपी जल से स्नान करके शुद्ध हो 'सिद्धालय' जो सिद्धों के बसने का मन्दिर उसके सुखों को पाते हैं। भावार्थ जो जिनवचन के द्वारा वस्तु का यथार्थ स्वरूप जानकर उसका सार जो अपना शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति उसको ग्रहण करते हैं वे इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर तप को अंगीकार करते हैं, मुनि होते हैं सो धीर वीर होकर परिषह-उपसर्ग आने पर भी चलायमान नहीं होते तब शील जो स्वरूप की प्राप्ति की पूर्णता रूप जो चौरासी लाख उत्तर गुण की पूर्णता वह ही हुआ निर्मल जल उससे स्नान करके सब कर्म मल को धोकर सिद्ध हुए, मोक्ष मंदिर में ठहरकर वहाँ अविनाशी, अतीन्द्रिय एवं अव्याबाध सुख को भोगते हैं-यह शील का माहात्म्य है। ऐसा शील जिनवचन से पाया जाता है इसलिये जिनागम का निरन्तर अभ्यास करना यह उपदेश है।।३८ ।। 崇崇崇崇崇崇崇崇崇崇勇攀樂事業事業蒸蒸男崇勇樂 業業樂業業助業、 (८.३८) 功能都为养號| 崇明勇勇勇樂类
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy