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________________ = गा० १२-'कंदप्पाइय वट्टइ....' अर्थ-जो लिंग धारण कर भोजन की अति आसक्ति करता हुआ कामसेवनादि क्रियाओं में वर्तता है वह व्यभिचारी और मायावी तिर्यंचयोनि है, पशु तुल्य है, श्रमण नहीं।। 17 ।। = गा० १३–'धावदि पिंडणिमित्तं....' अर्थ-जो मुनि आहार के लिए दौड़ता है, कलह करके भोजन करता है और उसके निमित्त दूसरे से परस्पर ईर्ष्या करता है वह श्रमण जिनमार्गी नहीं है।।8।। गा० १४-'गिण्हदि अदत्तदाणं.. अर्थ-जो बिना दिया तो दान लेता है और पीठ पीछे दूषण लगाकर दूसरे की निन्दा करता है वह श्रमण जिनलिंग को धारण करता हुआ भी चोर के समान है। 19 ।। गा० १७–'रागो करेदि.... अर्थ-जो स्त्रियों के समूह के प्रति निरंतर राग करता है, पर निर्दोष प्राणियों को दूषण देता है और दर्शन व ज्ञान से रहित है-ऐसा लिंगी तिर्यंचयोनि है, श्रमण नहीं ।।१०।। गा० १8-'पव्वज्जहीणगहिणं....' अर्थ-जो लिंगी दीक्षा रहित ग हस्थों में और शिष्यों ___ में बहुत स्नेह रखता है तथा मुनियों का आचार और गुरुओं की विनय से रहित होता है वह तिर्यंचयोनि है, पशु है, श्रमण नहीं।।११।। गा० १9–'एवं सहिओ मुणिवर...' अर्थ-ऐसी पूर्वोक्त खोटी प्रव त्तियों सहित जो लिंगधारी सदा संयमी मुनियों के बीच में निरन्तर रहता है और बहुत शास्त्रों को भी जानता है तो भी वह भाव से विनष्ट है, श्रमण नहीं है।।१२।। ७-२६
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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