SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 588
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूक्ति प्रकाश १. धम्मेण होइ लिंगं ण लिंगमित्तेण धम्मसंपत्ती ।। गाथा २ ।। अर्थ-धर्म से ही लिंग होता है, बाह्य लिंग मात्र ही से धर्म की प्राप्ति नहीं होती । २. जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायव्वो । । २ । । अर्थ- हे जीव ! तू भाव को ही धर्म जान, भावरहित बाह्य लिंग से तेरे क्या कार्य होता है अर्थात् कुछ भी नहीं होता । ३. अट्टं झायदि झाणं अनंतसंसारिओ होई । । 8 ।। अर्थ- जो आर्तध्यान को ध्याता है वह लिंगी अनन्त संसारी होता है । ४. माई लिंगविवाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो ।। १२ ।। अर्थ-लिंगव्यवायी अर्थात् व्यभिचारी और मायी अर्थात् कामसेवन के लिए अनेक छल विचारने वाला तिर्यंच योनि है, श्रमण नहीं । ५. दंसणणाणविहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ।। १७ ।। अर्थ-दर्शन- ज्ञान से विहीन लिंगी तिर्यंच योनि है, पशु समान है, श्रमण नहीं । ६. आयारविणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ।। १8 ।। अर्थ-मुनियों का आचार और गुरुओं की विनय से हीन लिंगी तिर्यंच योनि है, पशु है, श्रमण नहीं । ७-२७
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy