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गाथा चयन
गाथा २–'धम्मेण होइ लिंग....' अर्थ-धर्म से तो लिंग होता है परन्तु बाह्य लिंग मात्र ही से धर्म की प्राप्ति नहीं होती इसीलिए तू भाव को ही धर्म जान । केवल लिंग ही से तेरा क्या कार्य होता है, कुछ भी नहीं । । १ । ।
गा० ३–'जो पावमोहिदमदी...' अर्थ - पाप से मोहित बुद्धि वाला ऐसा जो पुरुष जिनवरेन्द्र के लिंग को ग्रहण करके लिंगीपने के भाव को हास्य मात्र गिनता है वह वेषधारियों में नारद लिंगी के समान है अथवा गाथा के चौथे चरण का पाठान्तर है 'लिंग णासेदि लिंगीणं - इसका अर्थ है कि यह लिंगी अन्य लिंगधारियों के लिंग को भी नष्ट करता है अर्थात् ऐसा जनाता है कि लिंगी सब ऐसे ही हैं ।।२।। गा० ५ - संमूहदि रक्खेदि....' अर्थ- जो बहुत प्रकार के प्रयत्नों से परिग्रह का संग्रह करता है, उसकी रक्षा करता है तथा उसके लिए निरन्तर आर्तध्यान ध्याता है वह पाप से मोहितबुद्धि पशु है, श्रमण नहीं । । ३ । ।
गा० ७ – पाओपहदोभावेवो....' अर्थ- पाप से जिसका आत्मभाव नष्ट हो गया है ऐसा जो पुरुष मुनिलिंग धारण कर अब्रह्म का सेवन करता है वह पाप से मोहितबुद्धि संसार समुद्र में भ्रमण करता है ।।४।।
गा० 8-'दंसणणाणचरिते उवहाणे...' अर्थ-जो लिंग धारण करके दर्शन - ज्ञान- चारित्र को तो उपधान अर्थात् धारण नहीं करता और आर्तध्यान को ध्याता है वह अनन्त संसारी होता है ।।५।।
गा० ११–‘दंसणणाणचरित्ते....' अर्थ-जो लिंग धारण करके दर्शन - ज्ञान - चारित्र के धारण और तप, संयम, नियम और नित्यकर्म आदि क्रियाओं को करता हुआ बाध्यमान होकर पीड़ा पाता है, दुःखी होता है वह नरकवास पाता है ।।6।।
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