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जिनभगवान ने जैसा मुनि का लिंग कहा उसमें इस काल में विपरीतता हुई अतः उसका निषेध करने को कुन्दकुन्द स्वामी ने लिंगपाहुड़ की रचना की। सर्वप्रथम तो उन्होंने भावधर्म की प्रतिष्ठा की कि धर्म से सहित तो लिंग होता है पर बाह्य वेष मात्र से धर्म की प्राप्ति नहीं होती किंवा कुछ भी कार्य नहीं होता। आगे वे कहते हैं कि 'यह मुनि का वेष जिनेन्द्र का वेष है अतः इसे धारण करके लिंग योग्य कार्य करने चाहिए और लिंग विरोधी कार्य करके इसे लजाना एकदम योग्य नहीं है।'
परिग्रह - संग्रह, मान कषाय, अब्रह्म सेवन, आ-ध्यान एवं आहार में रसगृद्धता आदि-आदि अनेकानेक लिंगविरुद्ध कार्य करके मुनिवेष को लजाने वाले पापमोहित मतियों की आचार्य देव ने इस पाहुड़ में गाथा - गाथा में बड़े ही कठोर शब्दों में भर्त्सना की है कि वे तिर्यंचयोनि हैं, पशु तुल्य हैं- श्रमण नहीं, वे पापी नरक को प्राप्त होते हैं, संसार वन में घूमते हैं, अनंत संसारी होते हैं, वे श्रमण भाव से नष्ट हैं, जिनमार्गी नहीं है और चौदहवीं गाथा में तो उन्होंने श्रमण को चोर तक के समान कह दिया। अन्त में उन्होंने उपदेश दिया है कि 'इस लिंगपाहुड़ शास्त्र को जानकर, मुनिपद को पाकर, कष्ट सहित बड़े यत्न से पालना चाहिए जिससे संसार भ्रमण का नाश हा कर उत्तम स्थान मोक्ष की प्राप्ति
हो सके ।
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