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________________ 卐業業業卐業業卐業卐業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ ise she स्वामी विरचित इसका संक्षेप ऐसा है - इस पंचम काल में जिनलिंग धारणकर फिर दुर्भिक्ष काल के निमित्त से भ्रष्ट हुए, वेष बिगाड़ा, अर्धफालक कहलाये, उनमें फिर श्वेताम्बर हुए, उनमें भी यापनीय हुए इत्यादि होकर शिथिलाचार पोषने के शास्त्र रचकर स्वच्छंद हुए, उनमें कितने ही निपट निंद्य प्रवत्ति करने लगे, उनके निषेध के बहाने से सबको उपदेश देने को यह ग्रंथ है, उसको समझकर श्रद्धान करना । ऐसे निंद्य आचरण वालों को साधु मोक्षमार्गी न मानना, उनकी वंदना - पूजन न करना - यह उपदेश है। 【卐卐糕糕 छप्पय लिंग मुनी को धारि, पाप जो भाव बिगारै । सो निंदा कूं पाय, आप को अहित विथारै। ताकूं पूजै थुवै, वंदना करै जु केई । ते भी तैसै होय, साथि दुर्गति कूं लेई ।। यातैं जे सांचे मुनि भये, भाव शुद्ध मैं थिर रहे । तिनि उपदेशे मारग लगे, ते सांचे अर्थ मुनिलिंग को धारण करके जो अपने भाव बिगाड़कर पापमय करते हैं वे निंदा को पाते हैं और अपना अहित करते हैं और जो कोई उनकी पूजा, स्तुति एवं वंदना करते हैं वे भी वैसे ही अर्थात् उन जैसे ही क्योंकि होते हैं अतः उनके साथ दुर्गति को ही प्राप्त होते हैं इस कारण जो सच्चे मुनि होते हैं वे शुद्ध भाव में स्थिर रहते हैं और उनके द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर जो चलते हैं वे सच्चे ज्ञानी कहलाते हैं । । १ । । ज्ञानी कहे ||१ ।। दोहा अंतर बाहरि शुद्ध जे जिन मुद्रा कूं धारि । भये सिद्ध आनंदमय, वंदौं योग संवारि ।।२।। अर्थ जिनमुद्रा को धारण करके अन्तरंग और बहिरंग से शुद्ध होकर जो आनन्दमय सिद्ध हो गये उनकी मैं मन-वचन-काय योग संवारकर वंदना करता हूँ ।। २ ।। ७-२३ 卐卐卐業業 五業專業卐業卐業業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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