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अष्ट पाहुड़Marat
स्वामी विरचित OK
आचार्य कुन्दकुन्द
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नित्य सराहना करता है तब ज्ञात होता है कि यह भी व्यभिचारी है, अज्ञानी है, जिसको लज्जा भी नहीं आती इस प्रकार भाव से विनष्ट है, मुनिपने के भाव नहीं तब मुनि काहे का ! ।।२१।।
उत्थानिका
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आगे इस 'लिंगपाहुड' को पूर्ण करते हैं और कहते हैं कि 'जो धर्म को यथार्थ
पालता है वह उत्तम सुख पाता है' :इय लिंगपाहुडमिणं सव्वं बुद्धेहिं देसियं धम्म। पाले हि कट्ठसहियं सो गाहदि उत्तमं ठाणं ।। २२।
इस रीति देशित सर्वबुद्ध से, 'लिंगपाहुड़' जान जो। मुनिधर्म पाले कष्ट से, पाता है उत्तम थान वह ।।२२।।
崇勇兼功兼崇崇崇崇先崇勇兼崇勇兼勇崇勇攀事業蒸蒸男樂事業
अर्थ
इस प्रकार इस 'लिंगपाहुड़' शास्त्र का सर्वबुद्ध जो ज्ञानी गणधरादि उन्होंने उपदेश दिया है उसको जानकर और जो मुनिधर्म को कष्ट सहित बड़े यत्न से पालता है, रखता है सो उत्तम स्थान जो मोक्ष उसको पाता है।
भावार्थ यह मुनि का लिंग है सो बड़े पुण्य के उदय से पाया जाता है उसको पाकर और फिर खोटे कारण मिलाकर यदि उसको बिगाड़ता है तो जाना जाता है कि यह बड़ा निर्भागी है, चिंतामणि रत्न पाकर कौड़ी समान गंवाता है इसलिए आचार्य ने उपदेश किया है कि ऐसा पद पाकर उसको बड़े यत्न से रखना, कुसंगति से बिगाड़ने पर जैसे पहले संसार भ्रमण था वैसे फिर अनन्त संसार में भ्रमण होगा और यत्न से पालेगा तो शीघ्र ही मोक्ष पायेगा इसलिए जिसको मोक्ष चाहिये वह मुनिधर्म को पाकर यत्न सहित पालो, परिषह का-उपसर्ग का कष्ट आवे तो भी चिगो मत-यह श्री सर्वज्ञ देव का उपदेश है।।२२।। ऐसे यह "लिंगपाहुड' ग्रन्थ पूर्ण किया।
७-२२, 藥業樂業樂業助業 崇崇明藥業崇勇崇明業
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