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________________ अष्ट पाहुड़t. स्वामी विरचित 0K ....OM आचार्य कुन्दकुन्द DOG Doc •local HDool(* Des/ Dooo ADOGR Des भावार्थ जो लिंग धारण करता है उसके सम्यग्दर्शन-ज्ञान होता है और परद्रव्यों से राग-द्वेष नहीं करना-ऐसा चारित्र होता है। वहाँ जो स्त्रियों के समूह से तो राग-प्रीति करता है और अन्य को दूषण लगाकर उससे द्वेष करता है, व्यभिचारी का सा स्वभाव है उसके काहे का दर्शन-ज्ञान और काहे का चारित्र ! लिंग धारण करके लिंग में जो करने योग्य था वह नहीं किया तब अज्ञानी पशु समान ही है, श्रमण कहलाता है परन्तु आप भी मिथ्याद ष्टि है और दूसरे को मिथ्याद ष्टि करने वाला है, ऐसे का प्रसंग युक्त नहीं है।।१७।। 000 उत्थानिका 樂樂樂崇崇崇崇崇崇明崇寨%崇勇兼業助業事業業業 आगे फिर कहते हैं पव्वज्जहीणगहिणं णेहं सीसम्मि वट्टदे बहुसो। आयारविणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। १८।। दीक्षाविहीन ग हस्थ अरु, शिष्यों पे रखता स्नेह बह। आचारविनयविहीन वह, तिर्यंचयोनि है, श्रमण नहिं ।।१८।। अर्थ जिस लिंगी के 'प्रव्रज्या' जो दीक्षा उससे रहित जो ग हस्थ उन पर और शिष्यों में बहुत स्नेह वर्तता है और जो आचार अर्थात मुनियों की क्रिया और गुरुओं की | विनय से रहित होता है वह तिर्यंचयोनि है, पशु अज्ञानी है, श्रमण नहीं है। भावार्थ ग हस्थों से तो बारबार लालपाल (लाड़-प्यार) रखे और शिष्यों से स्नेह बहुत रखे और मुनि की प्रव त्ति-आवश्यक आदि कुछ करे नहीं, गुरुओं से प्रतिकूल रहे-उनकी विनयादि करे नहीं, ऐसा लिंगी पशु समान है, उसको साधु नहीं कहते।।१८।। 崇先养养步骤养崇崇崇明崇明崇勇禁藥勇禁禁禁禁禁禁勇 崇崇明崇勇崇先業樂業终崇明藥崇崇勇業崇勇禁
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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