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________________ ( अष्ट पाहुइ.sarat. स्वामी विरचित OK आचाय कुन्दकुन्द DOG Door HDool. Dool Deale CG दूषण नहीं देता हुआ, बंध को नहीं गिनता हुआ 'शस्य' अर्थात् धान्य उसका खंडन करता है तथा वैसे ही 'वसुधा' अर्थात् प थ्वी उसका खंडन करता है, उसे खोदता है तथा बहुत बार 'तरुगण' अर्थात् व क्षों का समूह उसको छेदता है ऐसा लिंगी तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है। भावार्थ वनस्पति आदि स्थावर जीव जिनसूत्र में कहे हैं और उनकी हिंसा से कर्म का बंध कहा है उसको निर्दोष गिनता हुआ जो कहता है कि 'इसमें क्या दोष है, कैसा बंध है' और ऐसा मानता हुआ वैद्यकर्म के लिए औषधादि का तथा धान्य का, प थ्वी का और व क्षों का खंडन करता है, उन्हें खोदता है एवं छेदता है, वह अज्ञानी पशु है, लिंग धारण करके श्रमण कहलाता है परन्तु श्रमण नहीं है।।१६ ।। 0000 उत्थानिका 聯繫影巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩業牆巩巩巩巩業 崇先养养樂崇崇崇崇明崇崇勇兼業助兼業助兼崇勇崇勇樂 आगे कहते हैं कि 'जो लिंग धारण करके स्त्रियों से राग करता है और दूसरों __ को दूषण देता है वह श्रमण नहीं है' :रागो करेदि णिच्चं महिलावग्गं परं च दूसेइ। दंसणणाणविहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। १७।। नित राग महिलावर्ग से अरु, देता दूषण अन्य को। है दर्शज्ञानविहीन वह, तिर्यंचयोनि है, श्रमण नहिं।।१७।। अर्थ जो लिंग धारण करके स्त्रियों के समूह के प्रति तो निरन्तर राग-प्रीति करता है और दूसरे जो कोई अन्य निर्दोष हैं उनको दोष लगाता है-दूषण देता है। कैसा है वह-दर्शन और ज्ञान से हीन है। ऐसा लिंगी तिर्यंचयोनि है, पशु समान है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है। 拳拳拳崇明樂樂際拳拳崇明崇明藥
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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