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अष्ट पाहुइ.sarat.
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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नेका
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आगे कहते हैं कि जो 'लिंग धारण करके ऐसे प्रवर्तता है वह श्रमण नहीं है :
उप्पडदि पडदि धावदि पुढवीओ खणदि लिंगरूवेण । इरियावह धावंतो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। १५।। उछले, गिरे अरु दौड़े, भूमि खोदे लिंगी रूप में। नहिं शुद्धि ईर्यापथ की, वह तिर्यंच योनि है, श्रमण नहिं ।।१५।।
अर्थ लिंग धारण करके तो ईर्यापथ सोधकर चलना था उसमें सोधकर नहीं चलता,
दौड़कर चलता हुआ उछलता है, गिर पड़ता है, फिर उठकर दौड़ता है और प थ्वी 卐 को खोदता है, चलते हुए ऐसा पैर पटकता है जिससे प थ्वी खुद जाए अर्थात् ऐसा • चलता है वह तिर्यंचयोनि है, पशु अज्ञानी है, मनुष्य नहीं है, श्रमण नहीं है।।१५ । ।
उत्थानिका!
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आगे कहते हैं कि 'वनस्पति आदि स्थावर जीवों की हिंसा से बंध होता है उसको नहीं गिनता हुआ जो स्थावर जीवों की हिंसा स्वच्छन्द होकर करता है
वह श्रमण नहीं है' :बंधो णिरओ संतो सस्सं खंडेदि तह व वसुहं पि। छिंददि तरुगण बहुसो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। १६ ।।
जो धान्य खंडे, खोदे वसुधा, बंध को गिनता नहीं। बहु बार छेदे तरूगण, तिर्यंचयोनि वह, श्रमण नहिं ।।१६ ।।
अर्थ जो लिंग धारण करके और वनस्पति आदि की हिंसा से बंध होता है उसको
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