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________________ ( अष्ट पाहुइ.sarat. स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द DOG MOON 88g४४ Doo ADOR/ Deolo उनका यह निषेध है। उनमें अब भी कई ऐसे देखे जाते हैं जो आहार के लिए शीघ्र दौड़ते हैं, ईर्यापथ की सुध नहीं है तथा ग हस्थ के घर से आहार लाकर दो-चार इकट्ठे बैठकर खाते हैं और उसमें बटवारे में यदि सरस-नीरस आता है तो परस्पर कलह करते हैं तथा उसके लिए परस्पर में ईर्ष्या करते हैं, जो ऐसे प्रवर्तते हैं वे कैसे श्रमण ! वे जिनमार्गी तो नहीं हैं, कलिकाल के वेषी हैं, उनको जो साधु मानते हैं वे भी अज्ञानी हैं।।१३।। 0000 699 帶柴柴崇崇崇岳崇明藥業虽業業%崇崇崇崇%崇崇崇勇 आगे फिर कहते हैं :गिण्हदि अदत्तदाणं परणिंदा वि य परोक्खदूसेहिं। जिणलिंगं धारतो चोरेव होइ सो समणो।। १४।। गहता अदत्त का दान, परनिन्दा करे जो परोक्ष में। जिनलिंग को धरते हुए भी, चोर सम वह श्रमण है। १४ ।। अर्थ जो बिना दिया तो दान लेता है और परोक्ष में पर के दूषणों से पर की निंदा करता है वह जिनलिंग को धारण करता हुआ भी चोर के समान श्रमण है। भावार्थ जो जिनलिंग को धारण करके बिना दिया हआ आहार आदि को ग्रहण करता है, दूसरे की देने की इच्छा नहीं है परन्तु उसे कुछ भयादि उत्पन्न करके लेना तथा निरादर से लेना सो भी बिना दिया तुल्य जानना और परोक्ष पर के दोष कहता है वह श्रमण वेष में चोर है। बिना दिया लेना ओर छिपकर कार्य करना-ये तो चोर के कार्य हैं। यह वेष धारण करके ऐसा करने लगा तब चोर ही ठहरा इसलिए ऐसा वेषी होना योग्य नहीं है।।१४।। 崇先养养步骤养崇崇崇明崇明崇勇禁藥勇禁禁禁禁禁禁勇 藥業崇崇勇藥藥業與職業崇明崇勇攀業助業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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