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________________ अष्ट पाहुड seats स्वामी विरचित आचाय कुन्दकुन्द Doo DO ADOGS Deel उत्थानिका 帶柴柴業%崇明崇明藥藥業業業助業兼業助業%崇崇崇崇 आगे कहते हैं कि 'जो लिंग धारण करके ऐसे पूर्वोक्त प्रकार प्रवर्तता है वह __ श्रमण नहीं है-ऐसा संक्षेप से कहते हैं' :एवं सहिओ मुणिवर ! संजदमज्झम्मि वट्टदे णिच्चं । बहुलं पि जाणमाणो भावविणट्टो ण सो समणो।। १९।। इम वर्तता जो संयतों के, मध्य नित्य रहे भले। जाने बहुत श्रुत किन्तु, भावविनष्ट है वह, श्रमण नहिं।।१९ ।। अर्थ हे मुनिवर ! 'एवं' अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार प्रव त्ति सहित जो वर्तता है ऐसा लिंगधारी | यदि संयमी मुनियों के मध्य भी निरन्तर रहता है और बहुत शास्त्रों को भी जानता है तो भी भाव से नष्ट है, श्रमण नहीं है। भावार्थ ऐसा पूर्वोक्त प्रकार का लिंगी जो सदा मुनियों में रहता है और बहुत शास्त्रों र को जानता है तो भी वह क्योंकि भाव जो शुद्ध दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप परिणाम उससे रहित है इसलिए मुनि नहीं है, भ्रष्ट है और अन्य मुनियों के भाव बिगाड़ने वाला है।।१९।। 崇勇涉养乐操兼崇崇先崇崇明崇勇兼崇勇攀事業事業事業事業事業第 699o उत्थानिका आगे फिर कहते हैं कि 'जो स्त्रियों का संसर्ग बहुत रखता है वह भी श्रमण नहीं है :दसणणाणचरिते महिलावग्गम्मि देह वीसत्यो। पासत्थ वि हु णियत्थो भावविणट्ठो ण सो समणो।। २०।। दे ज्ञान-दर्शन-चरित, कर विश्वस्त महिलावर्ग को। पार्श्वस्थ से भि निकृष्ट, भावविनष्ट है वह, श्रमण नहिं ।।२०।। ७-२० 步骤業樂業樂業助業 <崇明藥業坊業崇明崇明業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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