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अष्ट पाहुड
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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आगे कहते हैं कि 'यदि भावशुद्धि के बिना ग हस्थ का आचार छोड़ता है तो
उसकी यह प्रव त्ति होती है :जो जोडेदि विवाह किखिकम्मं वणिज्ज जीवघादं च। वच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगिरूवेण।।९।।
जोड़े विवाह, करे क षि, व्यापार, जीव का घात जो। जाता नरक वह पाप करता हुआ लिंगी रूप में ।।९।।
अर्थ जो १.ग हस्थों के परस्पर विवाह जोड़ता है-सगापन (सगाई सम्बन्ध) कराता है, २.’क षिकर्म' अर्थात् खेती जोतना रूप जो किसान का कार्य, ३. वाणिज्य' अर्थात् व्यापार-विणज करने रूप जो वैश्य का कार्य और ४.जीवघात अर्थात् वैद्यकर्म के लिए जीवघात करना-यह धीवरादि का कार्य-इन कार्यों को करता है वह पापी लिंगी रूप धारण करके ऐसा करता हुआ नरक को प्राप्त होता है।
भावार्थ ग हस्थाचार छोड़कर शुद्ध भाव के बिना यह लिंगी हुआ था इस कारण भाव की वासना मिटी नहीं तब लिंगी का रूप धारण करके भी करने लगा। स्वयं विवाह नहीं करता तो भी ग हस्थों के सगापना कराके विवाह कराता है तथा खेती, व्यापार और जीवहिंसा स्वयं करता है और ग हस्थों को कराता है तब पापी हुआ नरक जाता है। ऐसे वेष धारने से तो ग हस्थ ही भला था, कम से कम पदवी का पाप तो नहीं लगता इसलिए इस प्रकार वेष धारण करना उचित नहीं है-यह उपदेश है।।६।।
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आगे फिर कहते हैं :
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(७-१२
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