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________________ स्वामी विरचित आचाय कुन्दकुन्द Clot Des/ Door Deslo भावार्थ पहले तो लिंग धारण किया और पीछे ऐसे पाप परिणाम हए कि व्यभिचार का सेवन करने लगा, उसकी पापबुद्धि का क्या कहना ! ऐसे का संसार में भ्रमण क्यों न हो ! जैसे जिसके अम त भी जहर रूप परिणमे उसके रोग जाने की क्या आशा वैसे ही यह हआ। ऐसे का संसार कटना कठिन है।।७।। Co. उत्थानिका 帶柴柴崇崇明崇明崇崇崇崇樂業先崇勇 業業業業業坊 आगे कहते हैं कि 'इस कारण से ऐसा है' :दंसणणाणचरित्ते उवहाणे जइ ण लिंगरूवेण। अट्ट झायदि झाणं अणंतसंसारिओ होई।। ८।। जो लिंग धारे पर ना धारे, ज्ञान-दर्शन-चरित को। अरु ध्यान ध्यावे आर्त, संसारी अपरिमित होता वह ।।८।। अर्थ 'यदि' अर्थात् जिसने लिंग रूप धारण करके दर्शन-ज्ञान-चारित्र को तो उपधान रूप नहीं किया-धारण नहीं किया और आर्तध्यान को ध्याता है तो ऐसा लिंगी अनंत संसारी होता है। भावार्थ लिंग धारण करके तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन करना था वह तो नहीं किया और जो परिग्रह व कुटुम्ब आदि विषयों का प्रसंग छोड़ दिया था उसकी फिर चिंता करके आर्तध्यान ध्याने लगा तब अनंत संसारी क्यों न हो ! इसका यह तात्पर्य है कि सम्यग्दर्शन रूप भाव तो पहले हुए नहीं और कुछ कारण पाकर लिंग धारण किया उसकी क्या अवधि ! इसलिए पहले भाव शुद्ध करके लिंग धारण करना युक्त है।।८।। 崇先养养樂崇崇崇崇明崇崇勇兼業助兼業助兼崇勇崇勇樂 藥業崇崇崇崇勇還要兼業助崇明崇勇攀業助業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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