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अष्ट पाहुइ.sarat.
स्वामी विरचित 0K
आचाय कुन्दकुन्द
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कलह वादं जूवा णिच्चं बहुमाणगविओ लिंगी। वच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगिरूवेण।। ६।। बहु मानगर्वित लिंगी जो नित जुआ, वाद, कलह करे। जाता नरक वह पाप करता, हुआ लिंगी रूप में ।।६ ।।
अर्थ जो लिंगी बहुत मान कषाय से गर्ववान हआ निरन्तर कलह करता है, वाद करता है और द्यूत क्रीड़ा करता है वह पापी नरक को प्राप्त होता है। कैसा है वह-लिंगी का रूप धारण करके ऐसा करता हुआ वर्तता है।
भावार्थ __ जो ग हस्थ रूप में ऐसी क्रिया करता है उसको तो यह उलाहना नहीं है क्योंकि कदाचित् ग हस्थ तो उपदेशादि का निमित्त पाकर कुक्रिया करने से रुक जाये तो नरक न जाये परन्तु लिंग धारण करके जो उस रूप में कुक्रिया करता है तो उसको उपदेश भी नहीं लगता जिससे वह नरक का ही पात्र होता है।।६।।
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आगे फिर कहते हैं :पाओपहदोभावो सेवदि अबंभ लिंगिरूवेण। सो पावमोहिदमदी हिंडदि संसारकांतारे ।। ७।।
जो पाप उपहतभाव लिंगी, सेवता अब्रह्म को। परिभ्रमता है संसार वन में, पापमोहित बुद्धि वह ।।७ ।।
अर्थ
पाप से 'उपहत' अर्थात् घाता गया है आत्मभाव जिसका ऐसा होता हुआ जो लिंगी का रूप धारण करके अब्रह्म का सेवन करता है सो पाप से मोहित है बुद्धि
जिसकी ऐसा लिंगी संसार रूपी कांतार जो वन उसमें भ्रमण करता है। 藥業樂業樂業助業 樂業藥業崇明崇明業