SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 570
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित आचाय कुन्दकुन्द AD Des/ FDeo/ Des/ भावार्थ लिंग धारण करके भाव बिगाड़ कर जो नाचना, गाने गाना और बाजे बजाना इत्यादि क्रियाएँ करता है सो पापबुद्धि है, पशु है, अज्ञानी है-मनुष्य नहीं है, मनुष्य होता तो श्रमणपने को रखता। जैसे नारद वेष धारण करके नाचता है, गाता है और बजाता है वैसा यह भी वेषी हुआ तब उत्तम वेष को लजाया इसलिए लिंग धारण करके ऐसा होना युक्त नहीं है।।४।। 帶柴柴業%崇明崇明藥藥業業業助業兼業助業%崇崇崇崇 आगे फिर कहते हैं :समूहदि रक्खेदि य अछू झाएदि बहुपयत्तेण। सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। ५।। जो संग्रहे वा यत्न से, रक्खे व ध्यावे आर्त को। वह पापमोहितमती, है नहिं श्रमण, तिर्यंच योनि है।।५।। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听 अर्थ जो निग्रंथ लिंग धारण करके परिग्रह को संग्रह रूप करता है अथवा उसकी वांछा, चितवन और ममत्व करता है तथा उसकी रक्षा करता है, बहुत यत्न करता है, उसके लिए आर्तध्यान निरन्तर ध्याता है वह कैसा है-पाप से मोहित है बुद्धि जिसकी ऐसा तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण तो नहीं है। श्रमण तो मनुष्य होता है, यह मनुष्य होता तो श्रमणपने को क्यों बिगाड़ता-ऐसा जानना।।५।। CO O आगे फिर कहते हैं : 藥業樂業樂業助業 ७-६) | 崇明藥業助兼崇明崇明 भाभा
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy