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स्वामी विरचित
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आचार्य कुन्दकुन्द
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अर्थ
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जो 'जिनवरेन्द्र' अर्थात् तीर्थंकर देव के लिंग-नग्न दिगम्बर रूप को ग्रहण करके लिंगीपने के भाव को उपहसता है-हास्य मात्र गिनता है सो कैसा है-जैसे लिंगी अर्थात् वेषी उसमें नारद लिंगी है वैसा है। अथवा इस गाथा के चौथे पाद का पाठान्तर ऐसा है-'लिंग णासेदि लिंगीण', इसका अर्थ है कि यह जो लिंगी है वह अन्य कोई जो लिंग के धारी हैं उनके लिंग को भी नष्ट करता है और ऐसा बोध कराता है कि 'लिंगी सब ऐसे ही हैं।' कैसा है लिंगी-पाप से मोहित है बुद्धि जिसकी ऐसा है।
भावार्थ लिंगधारी हो और पापबुद्धि से कुछ कुक्रिया करे तो उसने लिंगीपने को हास्य मात्र गिना, कुछ कार्यकारी गिना नहीं। लिंगीपना तो भावशुद्धि से सुशोभित था सो भाव बिगड़े तो बाह्य में कुक्रिया करने लगा तब इसने उस लिंग को लजाया और अन्य लिंगियों के लिंग को भी कलंक लगाया, लोग कहने लगे कि 'लिंगी ऐसे ही होते हैं' अथवा जैसे नारद का वेष है उसमें वह स्वेच्छा से स्वच्छंद जैसा 卐 प्रवर्तता है वैसा यह भी वेषी ठहरा इसलिए आचार्य ने ऐसा आशय धारण करके | कहा है कि 'जिनेन्द्र के वेष को लजाना योग्य नहीं है ।।३।।
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उत्थानिका
आगे लिंग धारण करके कोई कुक्रिया करे उसको प्रकट कर कहते हैं :
णच्चदि गायदि तावं वायं वाएदि लिंगरूवेण । सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। ४।। जो लिंग धरकर न त्य, गायन, वाद्यवादन को करे। वह पापमोहितमती, है नहिं श्रमण, तिर्यंच योनि है।।४।।
अर्थ जो लिंग रूप करके न त्य करता है, गाता है और बाजा बजाता है वह कैसा है-पाप से मोहित है बुद्धि जिसकी ऐसा है सो तिर्यंचयोनि है-पशु है, श्रमण नहीं है। 拳拳拳崇榮樂樂際拳拳拳拳崇明崇明