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________________ 麻糕糕糕卐業業卐業業卐業卐卐卐糕 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ अर्थ धर्म से सहित तो लिंग होता है तथा लिंग मात्र से धर्म की प्राप्ति नहीं है इसलिए हे भव्य जीव ! तू भाव रूप जो धर्म है उसको जान और केवल लिंग ही से तेरे क्या कार्य होता है अर्थात् कुछ भी नहीं । भावार्थ यहां ऐसा जानो कि 'लिंग' ऐसा चिन्ह का नाम है सो बाह्य वेष को धारण करना वह मुनि का चिन्ह है सो ऐसा चिन्ह यदि अन्तरंग में वीतराग स्वरूप धर्म हो तो उस सहित तो यह सत्यार्थ होता है और उस वीतराग स्वरूप आत्मा के धर्म के बिना लिंग जो बाह्य वेष उस मात्र धर्म की 'संपत्ति' जो सम्यक् प्राप्ति ७७ ise she स्वामी विरचित नहीं है इसलिए उपदेश किया है कि 'अन्तरंग भावधर्म जो राग-द्वेष-मोह रहित आत्मा का शुद्ध ज्ञान - दर्शन रूप स्वभाव वह धर्म है उसको हे भव्य ! तू जान और इस बाह्य लिंग-वेष मात्र से क्या कार्य है अर्थात् कुछ भी नहीं ।' यहां ऐसा जानना कि 'जिनमत में लिंग तीन कहे गए हैं - १. एक तो मुनि का यथाजात दिगम्बर लिंग, २. दूसरा उत्कृष्ट श्रावक का और ३. तीसरा आर्यिका का - इन तीनों ही लिंगों को धारण करके जो कुक्रिया करता है उसका निषेध है तथा अन्य मत के कई वेष हैं उनको भी धारण करके जो कुक्रिया करता है वह भी निंदा ही पाता है इसलिए वेष धारण करके कुक्रिया नहीं करना - ऐसा ज्ञान कराया है' । । २ ।। उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'जिन का लिंग जो निर्ग्रथ दिगम्बर रूप उसको ग्रहण करके और कुक्रिया करके जो हास्य कराता है वह पापबुद्धि है' : जो पावमोहिदमदी लिंगं घित्तूण जिणवरिंदाणं । उवहसदि लिंगिभावं लिंगिम्मि य णारदो लिंगी । । ३ । । जो पाप मोहितमती गहकर, जिनवरेन्द्र के लिंग को । उपहसता लिंगी भाव को, लिंगियों में नारदलिंगी वह । । ३ । । 卐卐卐業 ७-७ 卐卐糕卐業 蛋糕糕糕業業卐業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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