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________________ अष्ट पाहड़ . स्वामी विरचित आचाय कुन्दकुन्द Doo DOGIN DO Des/ 樂樂崇崇崇崇勇禁禁禁禁禁禁禁藥乐業事業業事業 यहां प्रथम ही आचार्य मंगल के लिए इष्ट को नमस्कार करके 'ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा' करते हैं :काऊण णमोक्कारं अरहंताणं तहेव सिद्धाणं। वोच्छामि समणलिंग पाहुडसत्थं समासेण।। १।। कर नमन श्री अरहंत को, अरु वैसे ही श्री सिद्ध को। मैं कहूँगा संक्षेप से, मुनिलिंग पाहुड़ शास्त्र को ।।१।। अर्थ आचार्य कहते हैं कि 'मैं अरिहन्तों को और वैसे ही सिद्धों को नमस्कार करके, श्रमणलिंग का है निरूपण जिसमें ऐसा जो पाहुड़ शास्त्र है, उसको कहूँगा।' भावार्थ इस काल में मुनि का लिंग जैसा जिनदेव ने कहा है उसमें विपरीतता हुई, उसका निषेध करने के लिए यह लिंग के निरूपण का शास्त्र आचार्य ने रचा | है। इसके प्रारम्भ में घातिया कर्मों का नाश कर अनंत चतुष्टय को प्राप्त करके अरिहंत हुए उन्होंने यथार्थ श्रमण के लिंग का मार्ग प्रवर्ताया और उस लिंग को साधकर सिद्ध हुए-ऐसे अरिहंत और सिद्ध उनको नमस्कार करके ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा की है।।१।। पिाथ 崇勇涉养乐操兼崇崇先崇崇明崇勇兼崇勇攀事業事業事業事業事業第 Ö[trenfall आगे कहते हैं कि 'लिंग बाह्य वेष है वह अन्तरंग धर्म सहित कार्यकारी है' : धम्मेण होइ लिंग ण लिंगमित्तेण धम्मसंपत्ती। जाणेहि भावधम्म किं ते लिंगेण कायव्वो।। २।। होवे धरम से लिंग, केवल लिंग से नहिं धर्म हो। त भाव धर्म को जान, तेरे लिंग से क्या कार्य हो।।२।। 明崇明崇明崇明聽聽聽聽聽聽聽聽業兼藥
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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