________________
9. वर वयतवेहिं सग्गो मा दक्खं होउ णिरए इयरेहिं।। २५।। अर्थ-व्रत और तप के द्वारा स्वर्ग का प्राप्त होना अच्छा है परन्तु अव्रत और अतप के द्वारा नरक के दुःख प्राप्त होना अच्छा नहीं है। १०.लोयववहारविरओ अप्पा झाएह
झाणत्थो।। २७।। अर्थ-योगी मुनिधर्मोपदेश आदि लोकव्यवहार से विरत हो, ध्यान में
स्थित होकर आत्मा को ध्याता है। ११. रयणत्तयसंजुत्तो झाणज्झयणं सया कुणह।। ३३।।
अर्थ-हे मुनिजनों! तुम रत्नत्रय से संयुक्त होकर सदा ध्यान और
अध्ययन करो। १२. दंसणसुद्धो सुद्धो दंसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं।। ३9।।
अर्थ-दर्शन से शुद्ध पुरुष ही वास्तव में शुद्ध है क्योंकि जो दर्शन से
शुद्ध है वही निर्वाण को पाता है। १३. दंसणविहीणपुरिसो ण लहइ तह इच्छियं लाह।। ३9।।
अर्थ-दर्शन से विहीन पुरुष अपने इच्छित लाभ अर्थात् मोक्ष को नहीं
पाता। १४. झायंतो अप्पाणं परमपयं पावए जोई।। ४७।।
अर्थ-आत्मा का ध्यान करता हुआ योगी परमपद को पाता है। १५. अच्चेयणम्मि चेदा जो मण्णइ सो हवेइ अण्णाणी।। ५8।।
अर्थ-जो अचेतन में चेतन को मानता है वह अज्ञानी है। १६. सो पुण णाणी भणिओ जो मण्णइ चेयणे
चेदा।। ५४।। अर्थ-जो चेतन में ही चेतन को
मानता है वह ज्ञानी कहा जाता है। १७. णाणतवेण संजुत्तो लहइणिव्वाणं।। ५७।।
अर्थ-ज्ञान और तप से संयुक्त आत्मा ही निर्वाण को पाता है।
६-१०४