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________________ LIN सूक्ति प्रकाश VVV १. तत्थ परो झाइज्जइ अंतोवाएण चयहि बहिरप्पं ।। गाथा ४।। अर्थ-बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के उपाय से परमात्मा का ध्यान करना चाहिए। २. आदसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाण।। १२।। अर्थ-आत्मस्वभाव में सुरत योगी निर्वाण को पाता है। ३. परदव्वरओ बज्झइ विरओ मुंचेइ विविहकम्मेहिं।। १३।। अर्थ-परद्रव्यों में रत जीव विविध प्रकार के कर्मों से बँधता है और विरत छूट जाता है। - ४. सद्दव्वरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ णियमेण ।। १४।। _अर्थ-स्वद्रव्य में रत श्रमण नियम से सम्यग्द ष्टि होता है। ५. जो पुण परदव्वरओ मिच्छादिट्ठी हवेइ सो साहू।। १५ ।। अर्थ-जो साधु परद्रव्य में रत है वह मिथ्याद ष्टि होता है। ६. परदव्वादो दुगई सद्दव्वादो ह सुग्गई हवई।। १६।। अर्थ-परद्रव्य में रति से दुर्गति और स्वद्रव्य में रति से निश्चित ही सुगति होती है। ७. सदव्वे कुणह रई विरइ इयरम्मि।। १६ ।। अर्थ-स्वद्रव्य में रति करो और इतर जो परद्रव्य उससे विरति करो। 8. सुद्धं जिणेहिं कहियं अप्पाणं हवदि सद्दव्वं ।। १४।। अर्थ-शुद्ध आत्मा स्वद्रव्य होता है-ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। ६-१०३
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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