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________________ प्र गा० 89–'ते धण्णा....' अर्थ-जिन्होंने मुक्ति के करने वाले सम्यक्त्व को स्वप्न में भी मलिन नहीं किया वे ही पुरुष धन्य हैं, वे ही मनुष्य हैं, वे ही भले क तार्थ हैं, वे ही शूरवीर हैं और वे ही पंडित हैं।।१५।। गा० १५-'मिच्छादिट्ठी जो सो..... अर्थ-जो मिथ्याद ष्टि जीव है वह जन्म-जरा-मरण से प्रचुर और हजारों दुःखों से व्याप्त इस संसार में सुख से रहित दुःखी हुआ भ्रमण करता है ।।१६ ।। गा० 99, १००-'किं काहदि....', 'जइ पढइ बहुसुयाणं.... अर्थ-आत्मस्वभाव से विपरीत बाह्य क्रियाकर्म, तप और कायक्लेश आदि मोक्षमार्ग में कुछ भी कार्य नहीं करता । बाह्य बहुत शास्त्रों का पढ़ना और बहुत प्रकार के चारित्र का आचरण करना सब ही आत्मस्वरूप से विपरीत होने के कारण बालश्रुत और बालचारित्र होता है।।१७।। गा० १०१, १०२-'वेरग्गपरो.... अर्थ-वैराग्य में तत्पर, परद्रव्य से पराङ्मुख, संसार सुख से विरक्त, स्वकीय शुद्ध सुख में अनुरक्त, गुणों के समूह से विभूषित, हेय-उपादेय पदार्थों का निश्चयवान और ध्यान-अध्ययन में सुरत ऐसा साधु उत्तम स्थान मोक्ष को पाता है। 198 ।। गा० १०३-'णविएहिं जं.... अर्थ-लोक के द्वारा नमस्क त इन्द्रादि से तो नमने योग्य, ध्यान किये गये तीर्थंकरादि के द्वारा ध्याने योग्य तथा स्तुति किये गये तीर्थंकरादि से स्तुति करने योग्य ऐसा कुछ जो इस देह ही में स्थित है उसको तुम जानो।।१9 ।। म हDEOHD00000000ASSES ANScen ARTISTORCES ६-१०२
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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