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रूप संसार रूप महासमुद्र से निकलने की इच्छा करता है, वह कर्म रूप ईंधन के दहन करने वाले शुद्ध आत्मा को ध्याता है।।५।। गा० ३9-'दंसणसुद्धो सुद्धो....' अर्थ-सम्यग्दर्शन से शुद्ध ही शुद्ध है। दर्शनशुद्ध ही निर्वाण को पाता है। दर्शनविहीन पुरुष वांछित लाभ को नहीं पाता।।६।। गा० ४9-'होऊण दिढचरित्तो.... अर्थ-योगी द ढ चारित्रवान होकर और द ढ़ सम्यक्त्व से भावितमति होकर आत्मा को ध्याता हुआ परमपद को पाता है।।७।। गा० ६०-'धुवसिद्धी तित्थयरो....' अर्थ-जिनका नियम से मोक्ष होना है और चार ज्ञानों से जो युक्त हैं ऐसे तीर्थंकर भी तपश्चरण करते हैं-ऐसा जानकर ज्ञानयुक्त पुरुष को भी निश्चित ही तप करना चाहिए।।8।। गा० ६२-'सुहेण भाविदं णाणं....' अर्थ-सुख से भाया हुआ ज्ञान दुःख आने पर विनष्ट हो जाता है इसलिए योगी को यथाशक्ति तप एवं क्लेश आदि दुःखों से आत्मा को भाना चाहिए।।9।। गा०६३-'आहारासणणिद्दाजयं....' अर्थ-आहार, आसन व निद्रा को जीतकर जिनेन्द्र देव के मतानुसार गुरु के प्रसाद से निज आत्मा को जानकर उसका ध्यान करना चाहिए।।१०।। गा० ६५-'दुक्खे णज्जइ अप्पा..' अर्थ-प्रथम तो आत्मा दुःख से-कठिनाई से जाना जाता है, फिर जानकर उसकी भावना दुःख से होती है, फिर भाया है निजभाव जिसने ऐसा पुरुष विषयों से विरक्त बड़े दुःख से होता है।।११।। गा० ६६-'ताम ण णज्जइ.... अर्थ-जब तक मनुष्य इन्द्रियों के विषयों में प्रवर्तता है तब तक आत्मा को नहीं जानता। विषयों से विरक्तचित्त योगी ही आत्मा को जानता है।।१२।। गा० ४१-'उद्धद्धमज्झलोए.... अर्थ-'उर्ध्व, मध्य और अधोलोक में मेरा कोई भी नहीं है, मैं एकाकी हूँ'-ऐसी भावना से योगी निश्चय से शाश्वत सुख को पाते हैं ।।१३।। गा० 8६–'गहिऊण य..... अर्थ-हे श्रावक! सुनिर्मल और मेरुवत् निष्कंप सम्यक्त्व को ग्रहण करके दुःखों का क्षय करने के लिए उसको ध्यान में ध्याना।।१४।।
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