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गाथा
चयन
गाथा १३ - परदव्वरओ बज्झइ... अर्थ-परद्रव्य में रत जीव अनेक प्रकार के कर्मों से बंधता है और परद्रव्य से विरत छूट जाता है - यह बंध और मोक्ष का संक्षेप में जिनदेव का उपदेश है ||१||
गा० १६ – 'परदव्वादो दुग्गई...' अर्थ-परद्रव्य से दुर्गति और स्वद्रव्य से निश्चित ही सुगति होती है - ऐसा जानकर स्वद्रव्य में रति और परद्रव्य से विरति करो ।।२।।
, गा० २३– 'सग्गं तवेण सव्वो... अर्थ-तप से स्वर्ग तो सब ही पाते हैं किन्तु जो ध्यान के योग से स्वर्ग पाते हैं वे परलोक में शाश्वत सुख को पाते हैं । । ३ ।।
६-१००
गा० २५-'वर वयतवेहिं....' अर्थ-व्रत और तप के द्वारा स्वर्ग का प्राप्त होना श्रेष्ठ है परन्तु अव्रत और अतप के द्वारा नरक के दुःख प्राप्त होना श्रेष्ठ नहीं है। छाया और आतप में स्थित होकर प्रतीक्षा करने वालों में बड़ा भेद है । । ४ । ।
गा० २६- 'जो इच्छइ णिस्सरिदु... अर्थ- जो जीव रुंद्र अर्थात् बड़ा विस्तार