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मोक्ष होगा ऐसे तीर्थंकर भी तपश्चरण करते हैं-ऐसा निश्चय से जानकर ज्ञान से युक्त होने पर भी तप अवश्य करना चाहिए। जो सुख में भाया हुआ ज्ञान है वह दु:ख आने पर नष्ट हो जाता है इसलिए योगी को तपश्चरणादिक के कष्ट सहित आत्मा की भावना करनी चाहिए। आहार, आसन व निद्रा को जीतकर व इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर, जिनवर के मत के द्वारा आत्मा को ध्याना चाहिए।
सम्यक्त्व और ज्ञान से रहित और संसार सुख में सुरत जो कोई जीव इस काल में ध्यान का निषेध करते हैं वे मूर्ख है। भरत क्षेत्र में इस पंचम काल में भी धर्मध्यान के द्वारा आत्मा को ध्याकर इंद्रपना व लौकातिक देवपना पाकर वहाँ से च्युत होकर जीव निर्वाण को पाता है - ऐसा जिनसूत्र में कहा है। निर्ग्रन्थ, मोह से रहित, बाईस परिषह सहने वाले, जितकषाय और आरम्भादि पापों से विमुक्त मुनि मोक्षमार्ग में ग्रहण किए गए है और निश्चयनय का ऐसा अभिप्राय है कि जो आत्मा, आत्मा ही में, आत्मा ही के लिए भली प्रकार लीन होता है वह योगी - ध्यानी मुनि निर्वाण को पाता है।
मुनियों के लिए इस प्रकार की प्रवृत्ति का उपदेश करके फिर श्रावकों के लिए आचार्य देव ने कहा है कि उन्हें प्रथम ही निर्मल और निश्चल सम्यक्त्व को ग्रहण करके उसे दुःखों के क्षय के लिए ध्यान में ध्याना चाहिए। बहुत कहने से क्या ! जो नरप्रधान अती काल में सिद्ध हुए और आगामी काल में सिद्ध होंगे वह सब सम्यक्त्व का ही माहात्म्य जानो । सबसे उत्तम पदार्थ शुशुद्ध आत्मा ही है, वह इस देह ही में तिष्ठता है, अरहंतादि पाँचों परमेष्ठी भी आत्मा ही में है और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप-ये चार आराधना आत्मा ही की अवस्था है अतः जीव को आत्मा ही की शरण है। ऐसे आत्मा की सिद्धि करके शाश्वत सुख पाने के लिए इस मोक्षपाहुड़ ग्रंथ को भक्ति भाव से पढ़ने, सुनने व इसकी भावना भाने की प्रेरणा करते हुए आचार्य देव ने पाहुड़ को समाप्त किया है।
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