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विषय
वस्तु
एक सौ छह गाथाओं
में विस्तार को प्राप्त इस पाहुड़
में आचार्य देव ने मोक्ष और मोक्ष के कारण का स्वरूप कहा है । बहिरात्मा को मन-वचन-काय से छोड़कर, अन्तरात्मा का आश्रय लेकर, परमात्मा को ध्याना चाहिए- ऐसा जिनवरेन्द्रों का उपेदश है। दुष्ट आठ कर्मों से रहित, अनुपम, ज्ञानशरीरी, नित्य और शुद्ध आत्मस्वभाव तो स्वद्रव्य होता है और आत्मस्वभाव से भिन्न सचित, अचित व मिश्र अन्य सर्व द्रव्य परद्रव्य होते है। परद्रव्य में रत तो मिथ्यादृष्टि हुआ कर्मों से बंधता है और परद्रव्य से विरत सम्यग्दृष्टि हुआ कर्मों से छूट जाता है - यह बंध और मोक्ष के कारण का संक्षेप है। आगे स्वद्रव्य से सुगति और परद्रव्य से दुर्गति होती है-ऐसा निर्देशन करके स्वद्रव्य में रति करने का और परद्रव्य से विरत होने का आचार्य देव ने उपदेश दिया है।
स्वर्ग तो तप से सब ही पाते है परन्तु जो ध्यान के योग से स्वर्ग पाते हैं वे उस ध्यान के योग से मोक्ष भी पाते है । व्रत और तप से जीव के जो स्वर्ग होता है वह तो श्रेष्ठ है परन्तु अव्रत और अतप से जो नरकगति में दुःख होता है वह नहीं होना चाहिए, श्रेष्ठ नहीं है अर्थात् अव्रत व अतप की अपेक्षा व्रत और तप आदि शुभ में जीव के द्वारा प्रवर्तन अच्छा है।
आगे आत्मध्यान की विधि बताते हुए कहा है कि योगी - ध्यानी मुनि को सारी कषायों को छोड़कर, गारव, मद, राग-द्वेष तथा मोह को छोड़कर; मिथ्यात्व, अज्ञान तथा पाप-पुण्य को मन-वचन-काय से छोड़कर, लोकव्यवहार से विरत होकर और मौनव्रत से ध्यान में तिष्ठकर आत्मा को ध्याना चाहिए। तपरहित तो ज्ञान और ज्ञानरहित तप दोनों ही अकार्यकारी होते हैं, इन दोनों के संयुक्त होने पर ही निर्वाण होता है। देखो ! चार ज्ञान के धारी और नियम से जिनके
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