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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
भ्रमण के कारण राग-द्वेष - मोहादि परिणाम हैं तथा वे रागादि वर्तमान में आकुलतामयी
दुःखस्वरूप हैं, सो जो ये ब्रह्मादि इष्ट देव कहे वे तो रागादि तथा काम-क्रोधादि से युक्त हैं, अज्ञान तप के फल से कई जीव लोक में चमत्कार सहित राजादि की
बड़ी पदवी पाते हैं सो उनको लोग बड़ा मानकर लोक के ब्रह्मादि भगवान कहने
लग जाते हैं और कहते हैं कि यह परमेश्वर ब्रह्मा का अवतार है सो इस प्रकार का माने जाने से तो जीव कुछ मोक्षमार्गी तथा मोक्ष रूप होता नहीं है, संसारी ही रहता है। सो ऐसे ही पदवी वाले सब देव जानने, वे आप ही रागादि से दुःख रूप हैं और जन्म-मरण सहित हैं सो दूसरे का संसार का दुःख कैसे मेटेंगे !
उनके मत में जो विघ्न का टलना और राजादि बड़े पुरुषों का होना कहा सो ये तो उन जीवों के पूर्व में जो कुछ शुभ कर्म बंधे थे उनका फल है। जन्म में किंचित् शुभ परिणाम किया था उससे पुण्य कर्म बंधा था, उसके उदय से कुछ विघ्न टलते हैं। और जो राजादि की पदवी पाता है वह पूर्व में कुछ अज्ञान तप किया हो उसका फल है सो यह तो पुण्य-पाप रूप संसार की चेष्टा है, इसमें कुछ बड़ाई नहीं है, बड़ाई तो वह है जिससे संसार का भ्रमण रूप दुःख मिटे सो वह तो वीतराग - विज्ञान भावों से ही मिटेगा और उन वीतराग-विज्ञान भावों
से युक्त पंच परमेष्ठी हैं वे ही संसार वर्तमान में कुछ पूर्व के शुभ कर्म के उत्पन्न नहीं करना । पुण्य-पाप दोनों
भ्रमण का दुःख मिटाने में कारण हैं। उदय से पुण्य का चमत्कार देखकर भ्रम संसार हैं, उनसे रहित मोक्ष है अतः
जिससे संसार से छूटकर मोक्ष हो वैसा ही उपाय करना और वर्तमान का भी विघ्न जैसा पंच परमेष्ठी के नाम, मंत्र, ध्यान, दर्शन और स्मरण से मिटेगा वैसा अन्य के नामादि से तो नहीं मिटेगा क्योंकि ये पंच परमेष्ठी शांति रूप हैं, केवल शुभ परिणामों के ही कारण हैं तथा अन्य जो इष्ट के रूप हैं वे तो रौद्र रूप हैं उनका तो जो दर्शन - स्मरण है वह रागादि तथा भयादि का कारण है, उनसे तो शुभ परिणाम होते दीखते नहीं। किसी के कदाचित् कुछ धर्मानुराग के वश से यदि शुभ परिणाम हों तो वे उनसे तो हुए नहीं कहलाते, वे तो उस प्राणी के स्वाभाविक धर्मानुराग के वश से होते हैं सो अतिशयवान शुभ परिणाम का कारण तो शांत रूप पंच परमेष्ठी ही का रूप है अतः उस ही का आराधन करना, वथा खोटी युक्ति सुनकर भ्रम उत्पन्न नहीं करना - ऐसा जानना ।
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