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अष्ट पाहुड
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स्वामी विरचित
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आचार्य कुन्दकुन्द
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添添添馬养業樂業兼崇明崇勇攀事業兼藥業樂業
होती है और ५. जो चार अघातिया कर्मों का भी नाश कर सब कर्मों से रहित हो मुक्त होते हैं वे सिद्ध कहलाते हैं।
इस प्रकार ये जो पाँच पद हैं, वे अन्य सब जीवों से महान हैं इसलिये पंच परमेष्ठी कहलाते हैं, उनके नाम तथा स्वरूप के दर्शन, स्मरण, ध्यान, पूजन और नमस्कार से अन्य जीवों के शुभ परिणाम होते हैं जिनसे पाप का नाश होता है, वर्तमान के विघ्नों का विलय होता है तथा आगामी पुण्य का बंध होता है इसलिए | स्वर्गादि शुभ गति पाते हैं और इनकी आज्ञानुसार प्रवर्तने से परम्परा से संसार से निव त्ति भी होती है इसलिये ये पांचों परमेष्ठी सब जीवों के उपकारी परम गुरु हैं, सब संसारी जीवों के द्वारा पूज्य हैं। इनके सिवाय जो अन्य संसारी जीव हैं वे राग-द्वेष-मोहादि विकारों से मलिन हैं वे पूज्य नहीं हैं, उनके महानपना, गुरुपना और पूज्यपना नहीं हैं, वे आप ही कर्मों के वश मलिन हैं तब अन्य का पाप उनसे कैसे कटे !
इस प्रकार जिनमत में इन पंच परमेष्ठी का महानपना प्रसिद्ध है और न्याय के बल से भी ऐसा ही सिद्ध होता है क्योंकि जो संसार के भ्रमण से रहित होते हैं वे ही अन्य के संसार का भ्रमण मिटाने में कारण होते हैं। जैसे जिसके पास धनादि वस्तु हो वह ही अन्य को धनादि देता है और आप ही दरिद्र हो तब अन्य का दारिद्र्य कैसे मेटेगा वैसे जानना। इस प्रकार जिनको संसार के विघ्न-दुःख मेटने हों और संसार भ्रमण के दुःख रूप जन्म-मरण से रहित होना हो वे अरिहंतादि पंच परमेष्ठी का नाम मंत्र जपो, इनके स्वरूप का दर्शन, स्मरण और ध्यान करो, इससे शुभ परिणाम होकर पाप का नाश होता है, सब विघ्न टलते हैं, परम्परा से संसार का भ्रमण मिटता है और कर्मों का नाश होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है-ऐसा जिनमत का उपदेश है सो भव्य जीवों को अंगीकार करने योग्य है।
यहाँ कोई कहता है-'अन्यमत में ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि को इष्ट देव माना है, उनके भी विघ्न टलते देखे जाते हैं तथा उनके मत में राजादि बड़े-बड़े पुरुष भी देखे जाते हैं सो जैसे उनके वे इष्ट विघ्नादि को मिटाने वाले हैं वैसे ही तुम्हारे भी कहो, ऐसा क्यों कहते हो कि ये पंच परमेष्ठी ही प्रधान हैं, अन्य नहीं?' उसको कहते हैं-'हे भाई ! जीवों के दुःख तो संसार भ्रमण का है और संसार
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