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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
सुख-दुःख का संवेदन है। जीव अनन्तानंत हैं उनमें कई तो संसारी हैं और कई संसार से निवत्त होकर सिद्ध हुए हैं। जो संसारी जीव हैं उनमें कई तो अभव्य हैं। तथा कई अभव्य के समान भव्य हैं, वे दोनों ही जाति के जीव संसार से कभी निवत्त नहीं होते हैं, उनके संसार अनादिनिधन है । तथा कई भव्य हैं, वे संसार से निवत्त होकर सिद्ध होते हैं- इस प्रकार जीवों की व्यवस्था है ।
अब इनके संसार की उत्पत्ति तथा प्रवत्ति कैसे है सो लिखते हैं- जीवों के ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों की अनादि बंध रूप पर्याय है, उस बंध के उदय के निमित्त से जीव रागद्वेषमोहादि विभाव परिणति रूप परिणमता है और उस विभाव परिणति के निमित्त से नवीन कर्म का बंध होता है - इस प्रकार इसके संतान से जीव के चतुर्गति रूप संसार की प्रवत्ति होती है और उस संसार में चारों गतियों में वह अनेक प्रकार सुख - दुःख रूप हुआ भ्रमण करता है । वहाँ कोई काल ऐसा आवे जब मुक्त होना निकट आवे तब सर्वज्ञ के उपदेश का निमित्त पाकर अपने स्वरूप को और कर्म बंध के स्वरूप को और अपने विभाव के स्वरूप को जाने-इनका भेदज्ञान हो तब परद्रव्यों को संसार का निमित्त जानकर उनसे विरक्त होकर, अपने स्वरूप के अनुभव का साधन करे, दर्शन-ज्ञान रूप स्वभाव में स्थिर होने का साधन करे और तब इसके बाह्य साधन हिंसादि पाँच पापों का त्याग रूप निर्ग्रथ पद सब परिग्रह का त्याग रूप दिगम्बर मुद्रा धारण करे, पांच समिति और तीन गुप्ति रूप प्रवर्ते तब सब जोवों की दया करने वाले साधु कहलावे ।
साधु
में तीन पदवी होती हैं - १. जो आप साधु होकर अन्य को साधु पद की शिक्षा-दीक्षा देते हैं वे तो आचार्य कहलाते हैं, २. साधु होकर जिनसूत्र को पढ़ते व पढ़ाते हैं वे उपाध्याय कहलाते हैं और ३. जो अपने स्वरूप के साधन ही में रहते हैं वे साधु कहलाते हैं । ४. जो साधु होकर अपने स्वरूप के साधन से ध्यान के बल से चार घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य को प्राप्त होते हैं वे अरहंत कहलाते हैं तब वे तीर्थंकर तथा सामान्य केवली जिन, इन्द्रादि से पूज्य होते हैं, उनकी वाणी खिरती है जिससे सब जीवों का उपकार होता है, अहिंसा धर्म का उपदेश होता है, सब जीवों की रक्षा कराते हैं और यथार्थ पदार्थों का स्वरूप बताकर मोक्षमार्ग दिखाते हैं- ऐसी अरहंत पदवी ६-६५
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