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अष्ट पाहुड़
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स्वामी विरचित
. आचार्य कुन्दकुन्द
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दोहा वंदौ मंगल रूप जे, अरु मंगल करतार। पंच परम गुरु पदकमल, ग्रंथ अंत हितकार ।।२।।
अर्थ अब ग्रंथ के अंत में मंगल रूप और मंगल के कर्ता पंच परम गुरु के हितकारी चरण कमलों की मैं वंदना करता हूँ।।२।।
यहाँ कोई पूछता है-ग्रन्थों में जहाँ-तहाँ पंच णमोकार मंत्र की महिमा बहुत लिखी और मंगल कार्य में विध्न को मिटाने को इसे ही प्रधान कहा, इसमें पंच परमेष्ठी को नमस्कार है सो पंच परमेष्ठी की प्रधानता हुई और उन्हें परम गुरु कहा सो इस मंत्र की महिमा तथा मंगलरूपपना और इससे विघ्न का निवारण और पंच परमेष्ठी का प्रधानपना, गुरुपना तथा नमस्कार योग्यपना कैसे है सो कहो ?
उसका समाधान रूप कुछ संक्षेप लिखते हैं-प्रथम तो जो पंच णमोकार मंत्र है उसके पैंतीस अक्षर हैं सो ये मंत्र के बीजाक्षर हैं तथा इनका जोड़ सब मंत्रों से प्रधान है। इन अक्षरों का गुरु आम्नाय से यदि शुद्ध उच्चारण हो तथा यथार्थ साधन हो तब ये अक्षर कार्य में विघ्न को दूर करने में कारण हैं इसलिये मंगल रूप हैं। जो 'म' अर्थात् पाप उसको गाले उसे मंगल कहते हैं तथा 'मंग' अर्थात् सुख उसको लावे, दे उसको मंगल कहते हैं सो इससे दोनों कार्य होते हैं१. उच्चारण से विघ्न टलते हैं और २. अर्थ का विचार करने पर सुख होता है इसी कारण इसको मंत्रों में प्रधान कहा है-इस प्रकार तो मंत्र के आश्रय महिमा है।
इसमें पंच परमेष्ठी को नमस्कार है, वे पंच परमेष्ठी अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु हैं सो इनका स्वरूप तो ग्रन्थों में प्रसिद्ध है तथापि कुछ लिखते हैं-यह अनादिनिधन, अकृत्रिम और सर्वज्ञ के आगम में कहा-ऐसा षटद्रव्य स्वरूप लोक है। इसमें जीवद्रव्य अनंतानंत हैं, पुद्गलद्रव्य उनसे अनंतानंत गुणे हैं, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य व आकाश द्रव्य एक-एक हैं और कालद्रव्य असंख्यात द्रव्य हैं। उनमें जीव तो दर्शनज्ञानमयी चेतनास्वरूप है और जो पाँच अजीव हैं वे चेतना रहित जड़ हैं। उनमें धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये चार द्रव्य तो जैसे हैं वैसे रहते हैं उनके विकार परिणति नहीं है परन्तु जीव व पुद्गल द्रव्य के परस्पर निमित्त-नैमित्तिक भाव से विभाव परिणति है। उसमें भी पुद्गल तो जड़ है, उसके
विभाव परिणति का दुःख-सुख का संवेदन नहीं है पर जीव चेतन है, उसके 業業助崇明崇崇勇崇崇崇勇兼業助崇崇崇崇明
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