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अष्ट पाहुड.
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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है उसे भी चारित्र में अंतर्भूत करके त्रयात्मक ही कहा है-इस प्रकार इन कारणों
से प्रथम तो तद्भव ही मोक्ष होता है और जब तक कारण की पूर्णता नहीं होती | उससे पहले यदि कदाचित् आयु कर्म की पूर्णता हो जाये तो स्वर्ग में देव होता
है, वहाँ भी यह वांछा रहती है कि 'यह शुभोपयोग का अपराध है, यहाँ से चयकर मनुष्य होऊँगा तब सम्यग्दर्शनादि रूप मोक्षमार्ग का सेवन करके मोक्ष को प्राप्त होऊँगा' ऐसी भावना रहती है तब वहाँ से चयकर मनुष्य हो मोक्ष पाता है।
अभी इस काल में द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की सामग्री का निमित्त नहीं है इसलिये तद्भव मोक्ष नहीं है तो भी यदि रत्नत्रय का शुद्धता से सेवन किया जाए तो यहाँ से देव पर्याय पाकर पीछे मनुष्य हो मोक्ष पाता है इसलिए यह उपदेश है कि जैसे बने वैसे रत्नत्रय की प्राप्ति का उपाय करना और उसमें भी सम्यग्दर्शन प्रधान है, उसका उपाय तो अवश्य चाहिये इसलिये जिनागम को समझकर सम्यक्त्व का उपाय अवश्य करना योग्य है-ऐसा इस ग्रंथ का संक्षेप जानो।।१०६।।
छप्पय सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण, शिव कारण जानूं। ते निश्चय व्यवहार रूप, नीकै लखि मानूं। सेवो निशदिन भक्ति भाव, धरि निज बल सारू। जिन आज्ञा सिर धारि, अन्य मत तजि अधकारू। इस मानुष भव कू पायकै, अन्य चाव चित्त मति धरो। भवि जीवनि कू उपदेश यह, गहि करि शिव पद संचरो।।१।।
अर्थ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को मोक्ष का कारण जानो तथा उसे भली प्रकार से निश्चय–व्यवहार रूप से देखकर मानो और पाप को करने वाले अन्य मतों को छोड़कर एवं जिन आज्ञा को शिरोधार्य करके भक्ति भाव को धारण कर निज बल के अनुसार उसका निशदिन सेवन करो। इस मनुष्य भव को पा करके अन्य कोई रुचि मन में मत धारण करो ऐसा भव्य जीवों को उपदेश है जिसे ग्रहण कर उन्हें मोक्ष पद प्राप्त करना चाहिए।
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