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अष्ट पाहुड.
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वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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यहाँ से लगाकर ऊपर के गुणस्थान वालों को साधु कहते हैं। (७) अप्रमत्त-जब संज्वलन चारित्रमोह का मंद उदय होता है तब प्रमाद का अभाव होता है और तब स्वरूप के साधने में बड़ा उद्यम होता है, इसका नाम अप्रमत्त ऐसा सातवां गुणस्थान है, इसमें धर्मध्यान की पूर्णता है। (8-१०) अपूर्वकरण, अनिव त्तिकरण व सूक्ष्मसांपराय-जब सातवें गुणस्थान में स्वरूप में लीन होता है तब सातिशय अप्रमत्त होकर श्रेणी का प्रारंभ करता है तब उससे ऊपर चारित्रमोह का अव्यक्त उदय रूप अपूर्वकरण, अनिव त्तिकरण और सूक्ष्मसांपराय नाम धारक तीन गुणस्थान होते हैं | चौथे से लगाकर दसवें सूक्ष्मसांपराय तक कर्मों की निर्जरा विशेषता से गुणश्रेणी रूप होती है। (११-१२) उपशांतकषाय व क्षीणकषाय-दसवें से ऊपर मोह कर्म के अभाव रूप ग्यारहवां और बारहवां उपशांतकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थान होते हैं। (१३) सयोगीजिन-इसके पीछे जो तीन घातिया कर्म शेष रहे थे उनका नाश करके अनंत चतुष्टय प्रकट होकर जब अरहंत होता है तब सयोगीजिन नामक गुणस्थान है, यहाँ योग की प्रव त्ति है। (१४) अयोगीजिन-योगों का निरोध करके जब अयोगीजिन नाम का चौदहवां गुणस्थान होता है तब अघातिया कर्मों का भी नाश करके निर्वाण पद को प्राप्त होता है और वहाँ संसार के अभाव से मोक्ष नाम पाता है।
इस प्रकार सब कर्मों का अभाव रूप जो मोक्ष है उसका कारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को कहा। इनकी प्रव त्ति चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व के प्रकट होने पर एकदेश कहलाती है। वहाँ से लगाकर आगे जैसे-जैसे कर्म का अभाव होता है वैसे-वैसे सम्यग्दर्शन आदि की प्रव त्ति बढ़ती जाती है और जैसे-जैसे इनकी प्रव त्ति बढ़ती है वैसे-वैसे कर्म का अभाव होता जाता है। जब घातिकर्म का अभाव होता है तब तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में अरहंत होते हैं तब वे जीवन्मुक्त कहलाते हैं और चौदहवें गुणस्थान के अंत में रत्नत्रय की पूर्णता होती है उससे अघातिकर्म का अभाव होता है तब साक्षात् मोक्ष होता है और तब सिद्ध कहलाते हैं।
इस प्रकार मोक्ष का और मोक्ष के कारण का स्वरूप जिन आगम से जानकर और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को जो मोक्ष का कारण कहा है उसको निश्चय-व्यवहार रूप यथार्थ जानकर सेवन करना और तप भी मोक्ष का कारण
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