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________________ अष्ट पाहुङ अष्ट पाहुड. । atest स्वामी विरचित VasteNNN . आचाय कुन्दकुन्द olloE RECE का Ma %养养崇崇崇崇崇崇勇攀事業事業兼藥崇崇崇明業 भावार्थ इस 'मोक्षपाहुड' में मोक्ष का और मोक्ष के कारण का स्वरूप कहा है और जो मोक्ष का और मोक्ष के कारण का स्वरूप अन्य प्रकार से मानते हैं उनका निषेध किया है। इस ग्रंथ के पढ़ने और सुनने से उसके यथार्थ स्वरूप का ज्ञान, श्रद्धान और आचरण होता है और इसकी बारम्बार भावना करने से उसमें द ढ़ता होकर एकाग्र ध्यान की सामर्थ्य होती है तथा उस ध्यान से कर्म का नाश होकर शाश्वत सुख रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है इसलिये इस ग्रंथ को पढ़ना, सुनना और इसकी निरंतर भावना रखना-यह आशय है।।१०६ ।। इस प्रकार श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने यह मोक्षपाहुड़ ग्रंथ सम्पूर्ण किया। इसका संक्षेप ऐसा है यह जीव शुद्ध दर्शनज्ञानमयी चेतनास्वरूप है तो भी अनादि ही से पुद्गल कर्म के संयोग से अज्ञान, मिथ्यात्व और रागद्वेषादि विभाव रूप परिणमता है और उससे नवीन कर्म बंध की संतान के द्वारा संसार में भ्रमण करता है। जीव की प्रव त्ति के सिद्धान्त में भावों के सामान्य रूप से निम्न चौदह गुणस्थान निरूपण किये हैं :(१) मिथ्यात्व-मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। (२) सासादन-मिथ्यात्व की सहकारिणी अनतानुबंधी कषाय है, मात्र उसके उदय से सासादन गुणस्थान होता है। (३) मिश्र-सम्यक्त्व व मिथ्यात्व-इन दोनों के मिलाप रूप मिश्र प्रकृति के उदय से मिश्र गुणस्थान होता है। इन तीन गुणस्थानों में तो आत्मभावना का अभाव ही है। (४) अविरत-जब काललब्धि के निमित्त से जीवाजीव पदार्थों का ज्ञान–श्रद्धान होने पर सम्यक्त्व होता है तब इस जीव को स्व–पर का, हित-अहित का तथा हेय-उपादेय का जानपना होता है और तब आत्मा की भावना होती है और तब ही अविरत नामक चौथा गुणस्थान होता है। (५) एकदेश चारित्र-जब परद्रव्य से एकदेश निव त्ति का परिणाम होता है तब एकदेश चारित्ररूप जो पांचवां गुणस्थान होता है उसको श्रावकपद कहते हैं। (६) सकल चारित्र-जब परद्रव्य से सर्वदेश निव त्ति रूप परिणाम होता है तब सकल चारित्र रूप छठा गुणस्थान कहलाता है, इसमें संज्वलन चारित्रमोह के कुछ तीव्र उदय से स्वरूप के साधने में प्रमाद होता है इसलिये इसका नाम प्रमत्त है। 崇明業巩巩巩巩巩巩巩業凱馨听听听听听听听業货業 業坊業業樂業 (६-६१ |崇明藥藥業業助業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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