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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
निर्ग्रथ बाह्य असंग पर नहिं मुक्त मिथ्याभाव से ।
स्थान-मौन से उसके क्या, नहिं जानता समभाव निज । ।१७।। अर्थ
जिसने बाह्य परिग्रह से रहित और मिथ्याभाव से सहित निर्ग्रथ वेष धारण किया है वह परिग्रह रहित नहीं है उसके 'ठाण' अर्थात् खड़े होकर कायोत्सर्ग करने से क्या साध्य है और मौन धारण करना उससे क्या साध्य है क्योंकि आत्मा का समभाव जो वीतराग परिणाम उसको वह नहीं जानता ।
भावार्थ
जो आत्मा के शुद्ध स्वभाव को जानकर सम्यग्द ष्टि तो होता नहीं वह चाहे मिथ्याभाव सहित परिग्रह छोड़कर निर्ग्रथ भी हुआ हो और कायोत्सर्ग व मौन धारण करना इत्यादि बाह्य क्रियादि भी करता हो तो भी उसकी क्रिया मोक्षमार्ग में सराहने योग्य नहीं है क्योंकि सम्यक्त्व के बिना बाह्य क्रिया का फल संसार ही है ।। ६७ ।।
उत्थानिका
आगे आशंका उत्पन्न होती है कि 'सम्यक्त्व के बिना बाह्य लिंग को निष्फल कहा
पर जो बाह्यलिंग-मूलगुण को बिगाड़ता है उसके सम्यक्त्व रहता है या नहीं ?' उसके समाधान को कहते हैं :
मूलगुणं छित्तूणय बाहरिकम्मं करेइ जो साहू ।
सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणलिंगविराधगो णिच्चं । । 98 ।। जो मूलगुण को छेद साधु, बाह्य कर्मों को करे ।
जिनलिंग विराधक नित्य वह, पाता नहिं सिद्धि का सुख | 198 ।।
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अर्थ
कोई निर्ग्रथ मुनि होकर मूलगुण धारण करता है फिर उनका छेदनकर, उन्हें
बिगाड़कर अन्य बाह्य क्रियाकर्म करता है तो वह सिद्धि जो मोक्ष उसके सुख को
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