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अष्ट पार
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स्वामी विरचित
स्वामी विरचिURO.
आचार्य कुन्दकुन्द
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हुआ भोगता है। यहाँ दुःख तो अनन्त हैं, हजारों कहने से प्रसिद्धता की अपेक्षा बहुलता बताई है।।१५।।
उत्थानिका आगे इस सम्यक्त्व-मिथ्यात्व कथन का संकोच करते हैं :सम्म गुण मिच्छ दोसो मणेण परिभाविऊण तं कुणसु। जं ते मणस्स रुच्चइ किं बहुणा पलविएणं तु।। ६६ ।।
सम्यक्त्व अरु मिथ्यात्व के, गुण-दोष मन से भायकर। जो तेरे मन को रुचे कर और बहुत कहने से लाभ क्या ! ||9६ ।।
अर्थ 'हे भव्य ! ऐसे पूर्वोक्त प्रकार जो सम्यक्त्व के गुण और मिथ्यात्व के दोष उनको अपने मन से भाकर अर्थात् भावना करके जो अपने मन को रुचे-प्रिय लगे वह करे, बहुत प्रलाप रूप कहने से क्या साध्य है'-ऐसा आचार्य ने उपदेश दिया है।
भावार्थ आचार्य ने ऐसा कहा है कि 'बहुत कहने से क्या ! सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के पूर्वोक्त गुण-दोष जानकर जो मन में रुचे वह करो।' यहाँ उपदेश का आशय ऐसा है कि 'मिथ्यात्व को तो छोड़ो और सम्यक्त्व को ग्रहण करो जिससे संसार का दुःख मेटकर मोक्ष पाओ'119६ ||
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उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'यदि मिथ्याभाव नहीं छोड़ा तो बाह्य वेष से कुछ नहीं है :
बाहरिसंगविमुक्को ण विमुक्को मिच्छभाव णिग्गंथो। किं तस्स ठाणमोणं ण विजाणदि अप्पसमभावं ।। 9७।।
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