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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
सम्यक्त्वयुत श्रावक करे, जिनदेवदेशित धर्म को ।
करे अन्यमत उपदिष्ट, मिथ्याद ष्टि उसको जानना । । १४ ।।
अर्थ
जो जिनदेव के द्वारा उपदेशित धर्म को करता है वह सम्यग्द ष्टि श्रावक है और
जो अन्यमत के द्वारा उपदेशित धर्म का करता है वह मिथ्याद ष्टि जानना । भावार्थ
ऐसा कहने से यहाँ कोई तर्क करता है कि 'यह तो तुमने अपने मत को पुष्ट
करने की पक्षपात मात्र वार्ता कही ?' उसको कहते हैं कि 'ऐसा नहीं है, जिससे
सब जीवों का हित हो वह धर्म है सो ऐसे अहिंसारूप धर्म का जिनदेव ही ने
प्ररूपण किया है, अन्यमत में ऐसे धर्मका निरूपण नहीं है' - ऐसा जानना ।।१४।।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'जो मिथ्याद ष्टि जीव है वह संसार में दुःख सहित भ्रमण करता है' :
मिच्छादिट्ठी जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ ।
जम्मजरमरणपउरे दुक्खसहस्साउले जीवो ।। १५ ।।
घूमे कुदष्टि जीव होकर, दुःखी इस संसार में ।
जो जन्मजरामरणप्रचुर अरु दुःख सहस्त्रों से आकुलित । । १५ ।।
अर्थ
जो मिथ्याद ष्टि जीव है वह जन्म-जरा-मरण से प्रचुर रूप से भरा हुआ और हजारों
दुःखों से व्याप्त जो संसार उसमें सुख से रहित दुःखी हुआ भ्रमण करता है।
भावार्थ
मिथ्याभाव का फल संसार में भ्रमण करना ही है सो यह संसार जन्म, जरा,
मरण आदि हजारों दुःखों से भरा है, इन दुःखों को मिथ्याद ष्टि भ्रमण करता
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