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________________ अष्ट पाहुड state स्वामी विरचित VasteNNN आचार्य कुन्दकुन्द HDod •oCE ADOG/R Dool HDool /bore उत्थानिका 添添添添添添樂業%崇崇崇崇勇涉兼崇勇攀事業事業 आगे इस ही अर्थ को द ढ़ करते हुए कहते हैं :सवरावेक्खं लिंग राई देवं असंजयं वंदे। मण्णइ मिच्छादिट्ठी ण हु मण्णइ सुद्धसम्मत्ते ।। १३।। देव रागयुक्त असयंमी अरु लिंग स्वपरापेक्ष को। वंदे व माने कुद ष्टि, सद्द ष्टि शुद्ध न मानता ।।१३।। अर्थ 'स्वपरापेक्ष' तो लिंग-जो आप कोई लौकिक प्रयोजन मन में लेकर वेष धारण करे वह 'स्वापेक्ष' है और जो किसी पर की अपेक्षा से धारण करे, किसी के आग्रह तथा राजादि के भय से धारण करे वह परापेक्ष है तथा रागी देव-जिसके स्त्री आदिका राग पाया जाता है और असंयमी जो संयमरहित-इनको ऐसा कहे कि मैं वंदना करता हूं तथा इनको माने-श्रद्धान करे वह मिथ्याद ष्टि है। शुद्ध सम्यक्त्व होने पर इनको नहीं मानता-श्रद्धान नहीं करता और वंदना व पूजन नहीं करता। भावार्थ ये जो ऊपर कहे इनसे मिथ्याद ष्टि ही के प्रीति-भक्ति उत्पन्न होती है, जो निरतिचार सम्यक्त्ववान् है वह इनको नहीं मानता है। 19३।। 柴柴先崇崇崇崇崇乐業業先崇崇勇禁藥業樂業業崇勇 आगे कहते हैं कि 'जो जिन के द्वारा उपदेशित धर्म को करता है वह सम्यग्द ष्टि श्रावक है और जो इससे विपरीत करता है वह मिथ्याद ष्टि है' : सम्माइट्ठी सावय धम्मं जिणदेवदेसियं कुणदि। विवरीयं कुव्वंतो मिच्छादिट्ठी मुणेयव्वो।। 9४ ।। 業樂業業崇明藥業、 「 崇崇勇崇明崇勇攜帶 Timi
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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