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अष्ट पाहड
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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बताया है कि ऐसा निग्रंथ रूप भी जो किसी अन्य आशय से धारण करे तो वह वेष मोक्षमार्ग नहीं है, वह ऐसा हो कि जिसमें केवल मोक्ष ही की अपेक्षा हो और उसको जो माने वह सम्यग्द ष्टि है-ऐसा जानना ।।१।।
उत्थानिका
आगे मिथ्याद ष्टि के चिन्ह कहते है :कुच्छियदेवं धम्म कुच्छियलिंग च वंदए जो दु। लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु।। १२।।
जो देव कुत्सित, धर्म कुत्सित लिंग का वंदन करे। लज्जा से, भय से, गर्व से है प्रकट मिथ्याद ष्टि वह ।।१२।।
अर्थ
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१. जो क्षुधादि और रागद्वेषादि दोषों से दूषित हो वह 'कुत्सित' देव है, २. जो हिंसादि दोषों से सहित हो वह 'कुत्सित धर्म' है और ३. जो परिग्रहादि सहित वेष | हो वह 'कुत्सित-लिंग' है-इनको जो वंदता है-पूजता है वह प्रकट मिथ्याद ष्टि है। यहाँ विशेष कहते हैं-जो इनको भला-हित करने वाले मानकर वंदता है-पूजता है वह तो प्रकट मिथ्याद ष्टि है ही परन्तु जो लज्जा, भय और गारव-इन कारणों से भी वंदता-पूजता है तो वह भी प्रकट मिथ्याद ष्टि है। यहाँ लज्जा तो ऐसे है-लोग इनको वन्दते-पूजते हैं, यदि हम नहीं पूजेंगे तो लोग हमको क्या कहेंगे, हमारी इस लोक में प्रतिष्ठा चली जायेगी-इस प्रकार तो लज्जा से वंदना व पूजा करे। भय ऐसे है-इनको राजादि मानते हैं, हम नहीं मानेंगे तो हमारे ऊपर कुछ उपद्रव आ जायेगा-इस प्रकार भय से वंदना व पूजा करे। गारव ऐसे है हम बड़े हैं, महंत पुरुष हैं, सब ही का सन्मान करते हैं, इन कार्यों से ही हमारी बड़ाई है-इस प्रकार गारव से वंदना व पूजना होता है। ऐसे मिथ्याद ष्टि के चिन्ह कहे। 19२।।
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