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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
मोक्षमार्ग सो ही मोक्षमार्ग है, अन्यलिंग से अन्य मती तथा श्वेताम्बरादि जैनाभास
मोक्ष मानते हैं वह मोक्षमार्ग नहीं है । ऐसा जो श्रद्धान करता है वह सम्यग्द ष्टि है - ऐसा जानना । 190 ||
उत्थानिका
आगे इसी अर्थ को दढ़ करते हुए कहते हैं :
जहजायरूवरूवं
संजयं सव्वसंगपरिचत्तं ।
लिंगं1 ण परावेक्खं जो मण्णइ तस्स सम्मत्तं ।। ११ ।।
यथाजात रूप स्वरूप, संयत, सर्व संगविमुक्त अरु । निरपेक्ष ऐसे लिंग को श्रद्धे उसे सम्यक्त्व हो । । ११ ।।
अर्थ
मोक्षमार्ग का लिंग–वेष ऐसा है कि १. यथाजात रूप तो जिसका रूप है अर्थात् बाह्य परिग्रह वस्त्रादि किंचित् मात्र भी जिसमें नहीं है, २. 'सुसंयत' अर्थात् सम्यक् प्रकार इन्द्रियों का निग्रह और जीवों की दया जिसमें पाई जाये ऐसा जिसमें संयम है, ३. 'सर्वसंग' अर्थात् सब ही परिग्रह तथा सब लौकिक जनों की संगति से रहित है और ४. जिसमें पर की अपेक्षा कुछ नहीं है, मोक्ष के प्रयोजन के सिवाय अन्य प्रयोजन की अपेक्षा नहीं है-ऐसे मोक्षमार्ग के लिंग को जो माने-श्रद्धान करे उस जीव के सम्यक्त्व होता है।
भावार्थ
मोक्षमार्ग में ऐसा ही लिंग है, अन्य अनेक वेष हैं वे मोक्षमार्ग में नहीं हैं-ऐसा जो श्रद्धान करे उसके सम्यक्त्व होता है। 'यह परापेक्ष नहीं है'- ऐसा कहने से यह
टि0-1. 'म0 टी0' में 'लिंग' शब्द की निरुक्ति करते हुए लिखा है- 'लि' लीनं प्रच्छन्नं अर्थं 'ग' गमयतीति लिंग अर्थात् आत्मा का ज्ञानमात्र रूप युद्धस्वभाव प्रच्छन्न है, कर्मावत है, उसकी प्राप्ति करने में जो साधन है वह 'लिंग' है । द्रव्य भावात्मक जिनेन्द्र मुद्रा ही मोक्ष
प्राप्ति का साधन होने से वही जिनलिंग' है ।
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