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अष्ट पाहुड.
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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नहीं पाता है क्योंकि ऐसा मुनि जिनलिंग का विराधक है।
भावार्थ जिन आज्ञा ऐसी है कि सम्यक्त्व सहित मूलगुण धारण करके साधु की जो अन्य क्रिया हैं उनको करे सो मूलगुण ये अट्ठाईस कहे हैं-१-५.पाँच महाव्रत,६-१०. पाँच | समिति, ११-१५.पाँच इन्द्रियों का निरोध,१६-२१.छह आवश्यक, २२.भूमिशयन, | २३.स्नान का त्याग, २४.वस्त्र का त्याग, २५.केशलौंच, २६.एक बार भोजन, २७. खड़े होकर भोजन और २8.दंतधावन का त्याग-ऐसे अट्ठाईस मूलगुण हैं, इनकी विराधना करके यदि कायोत्सर्ग, मौन, तप, ध्यान और अध्ययन किए जाएं | तो इन क्रियाओं से मुक्ति नहीं होती क्योंकि यदि कोई ऐसी श्रद्धा करता है कि 'हमारे सम्यक्त्व तो है ही, बाह्य मूलगुण बिगड़ें तो बिगडो, हम तो फिर भी मोक्षमार्गी ही हैं तो ऐसी श्रद्धा से तो जिन आज्ञा भंग करने से सम्यक्त्व का भी भंग होता है तब मोक्ष कैसे होगा और कर्म के प्रबल उदय से यदि कोई चारित्र से तो भ्रष्ट हो परन्तु जैसी जिन आज्ञा है वैसा श्रद्धान रहे तो उसके सम्यक्त्व रहता है। मूलगुण के बिना केवल सम्यक्त्व ही से मुक्ति नहीं है और सम्यक्त्व के बिना केवल क्रिया ही से मुक्ति नहीं है-ऐसा जानना।
यहाँ कोई पूछता है-'मुनि के स्नान का त्याग कहा पर हम ऐसा सुनते हैं कि यदि चांडाल आदि का स्पर्श हो जाये तो वे दंडस्नान करते हैं ?'
उसका समाधान–'जैसे ग हस्थ स्नान करता है वैसे स्नान करने का उनके त्याग है क्योंकि उसमें हिंसा की अधिकता है। मुनि के ऐसा स्नान है कि कमंडलु में जो प्रासुक जल रहता है उससे मंत्र पढ़कर मस्तक पर धारा मात्र देते हैं और उस दिन उपवास करते हैं, ऐसा स्नान है सो नाम मात्र स्नान है। यहाँ मंत्र और तप-स्नान प्रधान है, जल-स्नान प्रधान नहीं है-ऐसा जानना' ।।98 ।।
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|उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'आत्मस्वभाव से विपरीत जो बाह्य क्रियाकर्म है वह क्या
करता है, मोक्षमार्ग में तो वह कुछ भी कार्य नहीं करता' :
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बा६-८४)
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