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________________ अष्ट पाहुड state स्वामी विरचित आचाय कुन्दकुन्द ADOO 添添添添添添樂業%崇崇崇崇勇涉兼崇勇攀事業事業 किं बहुणा भणिएण जे सिद्धा णरवरा गए काले। सिन्हहिहि जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ।। 88।। गतकाल सिद्ध हुए जो नरवर, होंगे भवि जो आगे भी। जानो इसे समकित की महिमा, बहुत कहने से क्या हो ! |188 ।। अर्थ आचार्य कहते हैं कि-'बहुत कहने से क्या साध्य है ! जो नरप्रधान अतीत काल में सिद्ध हुए हैं और आगामी काल में जो सिद्ध होंगे सो सब सम्यक्त्व का माहात्म्य जानो।' भावार्थ इस सम्यक्त्व का ऐसा माहात्म्य है कि 'अष्ट कर्मों का नाशकर जो अतीत काल में मुक्ति को प्राप्त हुए हैं तथा आगामी में जो होंगे वे इस सम्यक्त्व से ही हुए हैं। इसलिए आचार्य कहते हैं कि 'बहुत कहने से क्या ! यह संक्षेप से कहा जानो कि मुक्ति का प्रधान कारण यह सम्यक्त्व ही है। ऐसा मत जानो कि ग हस्थ के क्या धर्म है, यह सम्यक्त्व धर्म ऐसा है कि धर्म के सब अंगों को सफल करता है। 188।। 柴柴先崇崇先帶禁藥業業先崇崇勇崇勇兼業助兼業助業%崇明 आगे कहते हैं कि 'जो सम्यक्त्व का निरतिचार पालन करते हैं वे धन्य हैं' : ते धण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया। सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे वि ण मइलियं जेहिं।। 89।। वे धन्य हैं, सुकृतार्थ हैं, वे ही शूर, पंडित, मनुज हैं। नहिं किया मलिन जिन स्वप्न में भी, सिद्धिकर सम्यक्त्व को।।89।। अर्थ जिन पुरुषों ने मुक्ति को करने वाले सम्यक्त्व को स्वप्न में भी मलिन नहीं किया-अतिचार नहीं लगाया वे पुरुष धन्य हैं, वे ही मनुष्य हैं, वे ही भले कृतार्थ हैं, वे ही शुरवीर हैं और वे ही पंडित हैं। 業坊業業業樂業 ६-७६ 《戀戀戀禁禁禁禁 रन
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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