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________________ 卐卐卐卐業業業業卐業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ है, इष्ट-अनिष्ट मानकर सुखी-दुःखी होना निष्फल है।' ऐसा विचार करने से दुःख मिटता है-यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है इसलिए सम्यक्त्व का ध्यान करना कहा है ।। 8६ ।। उत्थानिका स्वामी विरचित 卐卐卐 आगे सम्यक्त्व के ध्यान की ही महिमा कहते हैं : सम्मत्तं जो झायदि सम्माइट्टी हवेइ सो जीवो। सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्टट्टकम्माणि ।। ४७ ।। होता सुदष्टि जीव वो, सम्यक्त्व को ध्याता है जो । सम्यक्त्व परिणत हो के वह, दुष्टाष्ट कर्म का क्षय करे ।। 8७ ।। अर्थ जो श्रावक सम्यक्त्व को ध्याता है वह जीव सम्यग्द ष्टि होता है और सम्यक्त्वरूप परिणमित हुआ वह दुष्ट जो आठ कर्म उनका क्षय करता है। भावार्थ सम्यक्त्व का ध्यान ऐसा है-यदि पहिले सम्यक्त्व न हुआ हो तो भी उसका स्वरूप जानकर उसका ध्यान करे तो सम्यग्द ष्टि हो जाता है तथा सम्यक्त्व होने पर उसका परिणाम ऐसा है कि संसार के कारण जो दुष्ट अष्ट कर्म उनका क्षय होता है। सम्यक्त्व के होते ही कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा होने लग जाती है और अनुक्रम से मुनि होता है तब चारित्र और धर्म- शुक्लध्यान इसके सहकारी होते हैं और तब सब कर्मों का नाश हो जाता है ।। 8७ ।। उत्थानिका आगे इसको संक्षेप से कहते हैं : ६-७५ 隱卐卐業業 五米米米米米米米米米米米米米
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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